वो बन्द किताब हूँ, जिसे पढ़ने की उत्सुकता तो जताई थी बड़ी प्रेम से,
पर कभी जिसे खोला ही नहीं
तुमने मुझे अपनी उन किताबों में सँजो कर रखा है ,जो तुम्हें हैं बेहद ही पसन्द,
पर अनजाने में ही सही जिसे कभी छुआ ही नहीं
तुम पढ़ती हो किसी न किसी किताब को रोज ही
जो कभी मुझसे दूर वाली ,
तो कभी मेरे बिल्कुल पास की,
कभी मेरे दाँए की,
तो कभी मेरे बाँए की किताब
यहाँ तक की तो किसी -किसी को पढ़ा है ,
तुमने कई- कई बार
पर ऐसा क्या जो तुम्हारा हाँथ न बढ़ा मेरी तरफ एक भी बार
इस अजनबी रवैये ने तुम्हारे इस भेद को बयां कर ही दिया
जिसे तुम मौन रह कर छुपाती रही हर बार
कि मै हूँ, तुम्हारी इस दुनिया में कितना खास
जिसे अथाह घृणा है मुझसे या फिर अनन्त ही प्रेम
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