Mrigank Mrigank Srivastava   (Arihant)
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Joined 30 April 2018


Joined 30 April 2018
5 MAY 2023 AT 17:20

वो खुद के कमाए पैसे खर्च करने की ख्वाहिश पूरा करने निकला था
उसे क्या पता था कि ख्वाहिश पूरी होते होते, वो खुद को ही खर्च कर चुका होगा

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26 JAN 2023 AT 12:12

यातना और तिरस्कार को कितनो ने हंसते हंसते गले लगाया था,
न जाने कितनो ने अपने और अपनो के प्राणो को दाव पर लगाया था।
असीम बलिदानो ने स्वतंत्रता संग्राम की चिंगारी को करोड़ो दिलो मे जगाया था,
तब कही जाकर हमारा देश आजाद कहलाया था ।।

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28 JUL 2022 AT 23:59

चाणक्य को मिला ज्ञान मुझी से,
अशोक बने महान मुझी से।
शुन्य को खोजा जिसने,
विश्व को मिला ऐसा विद्वान मुझी से।।

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2 APR 2022 AT 13:45

देख कर गमों का ये दौर,
लगता है जैसे मुस्कुराना भी है कोई गुनाह।
हर पल यही सोचता रहता हूं ,
कि कही वक्त की करवटों मे हो न जाउ फनाह।।

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15 AUG 2021 AT 11:50

बुद्ध गांधी की अहिंसा हो, या हो प्रताप का शौर्य।
गुप्तों का स्वर्णकाल हो, या हो महानतम मौर्य।।

विश्व गुरु रहे हैं हम, फिर से वो स्वर्णिम इतिहास दोहराएंगे।
माना दासता के घाव गहरे है, पर हारे नही हैं हम, उन जख्मों से जुझकर भी प्रगति का एक अप्रत्याशित दौर दिखलाएंगे ।।

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20 MAY 2021 AT 23:32

माना कि ये समय कुछ धुंधला सा है,
पर कोई कोहरा आखिर सूरज को कब तक रोक पाएगा।
तु सब्र कर, गुजरेगा ये वक्त भी ,
और हर बंदिश से आजाद होकर ,ये जहां फिर से मुस्कुराएगा ।।

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11 MAR 2021 AT 14:41

आदियोगी हूँ, वैरागी हूँ,
हर जीव से मै अनुरागी हूँ।
कभी करुणा का स्त्रोत तो कभी तांडवकर्ता विकराल हूँ,
मोह माया से परे मै कैलाशी महाकाल हूँ।।

भौतिक संसार से परे,
मै कैलाश का संत हूँ।
विष का प्याला पीने वाला,
मलंग मै निलकंठ हूँ।।

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6 MAR 2021 AT 18:02

मै काल सा अमर हूँ,
दिव्यता के पुष्पों पे मंडराता एक भ्रमर हूँ।

उचाईयों से क्या डरू,
जब मै खुद में ही शिखर हूँ।
मै काल सा अमर हूँ।।

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12 FEB 2021 AT 19:54

साम्राज्य विस्तार की अभिलाषा मे लीन मैं,
जनसंघार कर रक्त की नदियां सृजता रहा।
प्रत्याशित प्रजा ने किया जब मधुर कोकिल स्वर मुझसे,
तब भी मुर्ख मैं, भयावह सिंघ सा गरजता रहा।।

युद्ध बहुत हो चुके, अब बौद्ध का विस्तार होगा,
वचन यही, मेरे हाथों नही, अब कोई अत्याचार होगा।
करुणा का प्रतीक बन, यह साम्राज्य जगमगाएगा,
यह चंड अशोक अब धर्म अशोक कहलाएगा।।

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7 FEB 2021 AT 21:54

न जाने क्या मर्जी थी उस उपरवाले की,
जब अंधेरों से मोहब्बत मुकम्मल होने लगी थी, तभी उसने जुगनुओं से रूबरू करवा दिया।

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