ना जाने कब, कौन, कहाँ निशाना बनायें मुझे, डरता हूँ, दुनियाँ में, दोस्त बहुत हैं | खून से लतपथ बाहेँ रहती हैं मेरी, लगता है "म्रदु", आस्तीन में साँप बहुत हैं ||
मेरे अल्फाज भी "म्रदु", भीगे-भीगे से निकल रहे हैं | हवाओं में फैलते ज़हर का डर, भूख से नर्म पड़ती अाँखों का दर्द, सियासत से मिल रहे धोके से, अब ये विफर रहे हैं |
मेरे अल्फाज भी "म्रदु", भीगे-भीगे से निकल रहे हैं ||