Mourish Gurjar   (Naagar Saab ki कलम से)
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Joined 9 November 2017


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Joined 9 November 2017
4 FEB 2022 AT 9:18

मेरे शहर का मिजाज़ बदला-बदला सा है
लगता है ये तेरी यादो का हिस्सा अदना सा है।

-मौरिश नागर

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3 FEB 2022 AT 21:01

सर्द सी ये रात,
तन्हा से हम।
बेवक्त आ लिपटे है मुझसे
ये अधूरे से गम।

सहे है हमने सितम
ढे़र सारे।
कुछ वक्त गर्दिश में
भी रहे है हमारे तारे।
पर हम उस वक्त में
भी हिम्मत नही हारे।

-मौरिश नागर

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3 FEB 2022 AT 9:31

उम्मीदो का इक घर बनाया करो,
छोड़कर जाने वालो को भुलाया करो।
रूठ जाने वालो को मनाया करो
नफरत में मरने वालो को प्रेंम सिखलाया करो।
बुरे वक्त में कुछ अच्छा ढूंढ आगे बढ़ जाया करो।
जब टूट पड़े कोई पहाड़ मुसीबत का तुम पर
तो संयम के सहारे उसे सुलझाया करो।
जब सताये डर हार का तुम्हें
तो मेहनत को काम में लाया करो।
जब झूठ का कारोबार बढ़े
तो सच को तुम फैलाया करो।
जब अपनो पर कोई आँच पड़े
तो वीर योद्धा बन तुम खड़े हो जाया करो।

-मौरिश नागर

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2 FEB 2022 AT 21:05

कविताएं जहन से फिसलकर
आँगन के फूलो से जा चिपकी है।
वे आजकल मग्न है गिलहरी के
बचकाने खेलो में।
वे आजकल झरनो संग झूम रही है
वे आजकल ठहरने के लिये
ढूंढ रही है नदी के किनारे।
वे आजकल मौंन सी बैंठी
पहाड़ो की धुंध मे कही।
खुद में खोयी हुयी सी,
मुझमे कही सोयी हुयी सी।
वे आजकल मुझसे रुठी सी है
वे उम्मीद की डाल को पकड़े बैठी है
ख्वाबो के पंख लगाकर उड़ जाने को,
वे इंतजार में किसी टूटी जिंदगी को
फिर से सँवारने के लिये।
मैं माँगता मोहलत वक्त से
आजकल फिर से उनके करीब़
लौंटने की।
पर जिम्मेदारियों के भारी बस्ते
के चलते ,
वे दूर चली गयी है
मेरे जहन से कही।
बस ख्याल भर ही आता है
उसके लौंटने का।
पर पन्नों पर वो कही गुम सी
दिखती है।
और मैं उनके बगैंर
बिल्कुल अधूरा सा।

-मौरिश नागर

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2 FEB 2022 AT 9:37

शोर भरे शहरो की सड़को पर
फिरते है कुछ लड़के मौंन और
चेहरे पर हल्की सी मुस्कान लिये।
वे शहर की भगदड़ में भी कुछ
ठहरे से दिखते है
वे हर रोज़ नौकरी की
निलामी में बिकते है।
वे लौंटते नही घर
कभी समय पर।
वे सादा से कपड़ो में
कुछ ख्वाबो की धूल
लिये चलते है।

-मौरिश नागर

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2 FEB 2022 AT 9:13

टूटती हर इक आस पर
टूटने लगता है इंसान।

-मौरिश नागर

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2 FEB 2022 AT 9:06

सहम सी गयी है ख्वाहिशे
ख्वाबो का कुछ पता नही।
गौंर से देखने पर सारा अनूकूल लगता है,
पर असल में गहरा उतरो ,
तो सबकुछ बिखरा सा जान पड़ता है
जिसे समेंटते वक्त हिम्मत जवाब़
देती हुयी सी दिखाई पड़ती है।
सारे दिखते हुये को,
हम अनदेखा कर चले पड़ते है
उसी रस्ते पर,
जिसे रस्ते को हमें छोड़ देना
चाहिये था,बहुत पहले
उसके अनकहे हाल पर।
कर लेनी चाहिए थी
पहल नव जीवन की ओर।

-मौरिश नागर

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31 JAN 2022 AT 20:59

उम्र भर कौन माँगता है साथ यहाँ
बस पल दो पल का काँरवा माँगता
है हर कोई यहाँ।

-मौरिश नागर

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28 JAN 2022 AT 20:52

जिम्मेदारियों की धक्का -मुक्की में
सपने कही ओंधे मुँह जा गिरे।

-मौरिश नागर

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28 JAN 2022 AT 20:43

शहर अपने कब हुये,
वो रहे पराये उम्र भर।
वहाँ सिर्फ़ किराये के
घर ही हुये।
वो नही छू पाये मन के
दरख्त को।

-मौरिश नागर

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