monkOnOldStreet   (monkOnOldStreet)
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Joined 17 February 2019


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15 JAN 2023 AT 12:46

न किन्ही नजरों की आदत हूं मैं न किसी दिल का करार हूं,
मैं मयखाने की दीवारों पे लिखा कोई बदनाम सा इक अशआर हूं,
न ढूंढ मुझे तू अपनी इन खुश ख़ाक महफिलों में,
तहज़ीब की बस्ती से मै बचपन से फरार हूं।।

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6 JAN 2023 AT 12:59

वो रास्ते, वो गलियां, वो मचान छोड़ आए,
तूने आवाज़ दी जब भी हम सारा जहान छोड़ आए|
तू आज भी देखती है न जाने क्यूं मुझे शक भरी निगाहों से,
तेरे ऊंचाइयों के डर चलते ही तो हम सारा आसमान छोड़ आए।।

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2 JAN 2022 AT 20:58

दिन जलाया था मैने शाम की तलाश में,
शाम मिलते ही अजनबी हो गई।
दिल देता तो रहा आवाज़ उसे,
धड़कनों को समझने में ही कुछ देरी हो गई।
आंखो से छलके आंसू हर बार की तरह,
पोछने को बस हाथों की कमी हो गई।
और चल रही थी कहानी अपने ही सलीके से,
आखरी पन्ना आया और स्याही ही खत्म हो गई।।

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27 DEC 2021 AT 15:02

कत्ल करने की कसम खा रहे हैं कुछ लोग वो रंग ओढ़कर,
जो रंग मिलता था कभी हवा–ओ–हवस छोड़कर।
कुछ पा लेने की ज़िद है ये या बस छीनने का जुनून पाला है,
पढ़ा रहे हैं जो धर्म का हर सफहा उल्टा मोड़ कर।
न दीन न ईमान न शर्म न लिहाज कुछ भी नही था उस महफिल में फिर भी ,
वो चला तो रहे थे उसे ’संसद’ बोलकर।।

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12 DEC 2021 AT 18:30

हो शुरुआत जो किसी नज़्म की, तो तुमसे हो,
हो खत्म गर कोई सफ़हा तो तुमसे हो,
हर अल्फाज़ में मेरे छुपी रहो तुम नुक्ते की तरह,
पर हिकायत ए जिदंगी के हो मायेने तो तुमसे हो।

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5 DEC 2021 AT 0:40

चप्पा चप्पा बात फैल गई,
जंगल में जैसे आग फैल गई,
बंदरों की बैठक ने दे दिया सुझाव,
कि जंगल में अब होंगे चुनाव,
हाथी और शेर प्रत्याशी होंगे,
जंगल सत्ता के अभिलाषी होंगे,
अब पशु रैलियों का मेला होगा,
गठ जोड़ - जुमलो का खेला होगा,
शेर को प्रोपोगेंडा कर बकरियों को रिझाना है,
वोट पाने के लिए अब मटन बैन कराना है,
हाथियों का बंदरों से पेड़ों पर हुआ समझोता है,
सुअर गठबंधन बचाने को खुद सबका मल धोता है,
शाकाहारी जानवरों की संख्या तो ज्यादा है,
मेमोरेंडम में ग्रीन डॉटस इसलिए बेतहाशा है,
किनारे कर दिए हैं सब एक कतार,
बहुत दिखी हैं चीते सियार,
हर ठग बोल रहा है झूठ, सब पर सच का मुखौटा है,
इस जंगल के बाहर लिखा है "लोकतंत्र में ऐसा ही होता है"।

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4 DEC 2021 AT 13:00

चल रहा हूं मैं अरसो से और बरसों अभी बाकी हैं,
मेरे सफर में पड़ने वाले कई मकाम अभी बाकी हैं,
देखा है सूरज की गर्मी से पिघलता वो गर्भ मैने,
देखा है कुछ नही से जन्मा ये सब मैने,
मैने सागर से पर्वत होते देखा है,
मैने पहाड़ों को पत्थर होते भी देखा है,
देखा है मैने जनपदों का बनना और उजड़ना हर दौर में,
देखा है पानी की जिदंगी को हर तौर में,
मैने इंसानो की किलकारी को ललकार होते देखा है,
मैने जंगलों को बदल कर बाज़ार होते देखा है,
मै किसी तप जप से कभी बंधा नही,
मैं किसी सुर असुर का भी सगा नही,
मैं वरदानों श्रापों के चक्कर में कभी पड़ा ही नही,
मै जंग कभी किसी ओर से लड़ा भी नही,
मैं भूत हूं मै आज हूं और मैं ही कल भी हूं,
आकाश हूं, नीर हूं, अग्नि और थल भी हूं,
मै हर जगह हूं मौजूद और कहीं भी नही,
मै गलत नहीं हूं मगर सही भी नही,
मै आदि से हूं अंत तक,
मै अणु से हूं अनंत तक,
मै निश्छल अविनाशी हूं, मैं निर्भय हूं,
मै और कोई नहीं , मैं समय हूं।।

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30 NOV 2021 AT 1:52

न शेर न लोमड़ी न अजगर लगेगा,
खुलेगा चिड़िया घर जब संसद का एक सत्र लगेगा,
सभी बंदर लंगूर के समर्थक होंगे,
और गोरिले सा दंभ भी स्पीकर में लगेगा।

दूसरी ओर भी बैठेंगे भेड़-भेड़िए-लकड़ बग्घे,
एक से एक बड़े ठग और कुछ ठगे,
फिर विपक्ष में उठकर हाथी ज़ोर से बोलेगा,
लंगूर की खादी खोलेगा,
"बतलाओ लंगूर कि प्रजा का इतना झुकाव है कयो?
सीमा पर कुछ तनाव है कयो?"

लंगूर लंपट भी ताव में हाथी के बाप पर जाएगा,
हाथियों से कुचले पेड़ो की गिनती ज़रूर करवाएगा,
हर चीज़ करेगा वो बच सकने को,
जवाब से तौबा रखने को।

फिर वतन परस्ती का सदन में नारा लगेगा,
बंदरों को लंगूर न्यारा लगेगा,
विपक्ष को बोलना भारी लगेगा,
और प्रजा को बोलने हो तो हर्जाना लगेगा।

न शेर न लोमड़ी न अजगर लगेगा,
खुलेगा चिड़िया घर जब संसद का एक सत्र लगेगा

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19 NOV 2021 AT 21:20

न गांधी न नेहरू न सरदार को देखा है,
पर तख्तों से चली सड़क की हर आग को देखा है,
सुकून है चाशनी सा इन आंखो को ये नज़ारा देखकर,
आज "मुट्ठीभर" किसानों के पैरो में हमने ताज को देखा है।।

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13 NOV 2021 AT 1:26

पाल बाल और लाल हुए फिर जो मिट्टी के कोतवाल हुए,
स्वदेशी स्वराज की बातें सुन सुन गोरे रोज़ बेहाल हुए,
पीढ़ियां लगी थी देखने ख्वाबों में जो , अब वो आज़ादी लानी थी,
खुदीराम के शौर्य की पटकथा बच्चो को सुनानी थी।

भारत मां के हर चीरहरण को देख रहा सारा जग था,
ऐसे में उत्पीड़न रोकने मोहन का आना निश्चित था,
मोहन को फिर महात्मा बन लीक नई चलानी थी,
अर्जुन को बिना बाण धनुष के जीत भी दिलवानी थी।

मीलो से लंबा था सफर, वर्षो की वो यातना थी,
असहयोग के संघर्ष में बस देश प्रेम की भावना थी,
रावण की ललकार हुई जब जलहिया वाला बाग हुआ,
इंकलाब का भगत और उधम सिंह में मानव रुप अवतार हुआ।

मौत से टक्कर लेने को फिर बिस्मल शेखर अशफाक हुए,
अंग्रेजों के सारे नापाक इरादे उन गाजियों के आगे खाक हुए,
हिमालय से बहती थी सेतु तक, तब हवा भी हिंदुस्तानी थी,
मजहब-जात के चक्कर ठहरे , तब आज़ादी लानी थी।

लटक रहे थे सूली पर जब भगत गुरु और सुखदेव,
रावी आंसू बहाती थी और सिहर रहा था भारत देख,
इंकलाब का जुनून अब बच्चा बच्चा पाल रहा था,
पटेल जवाहर के इरादों में यह देश अब खुद को ढाल रहा था।
उस आज़ादी के लिए हमने हर जुल्म को झेला था,
अपनी भू का टुकड़ा भी काट कर खुदसे दूर ढकेला था,
और फिर श्रावण की रात आई जो थी गुरुओं की वाणी सी,
आज़ादी मिली उस यज्ञ से हमें जिसकी आहुति रक्त की कुर्बानी थी।।

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