संभाले तो हुआ ही था उसने मेरे सर को
हर रात इस नींद की ख़ातिर,
मग़र उस रोज़ उसने यूं होश संभाला...
कि ये तक़िया नहीं जनाब महज़ फोये का,
कपास के ढेर में बीच कहीं रीढ़ की हड्डी छिपाएं बैठा है।
मेरे फ़िज़ूल बहें कतरों को अपने सीने से लगाएं बैठा है।-
❤ बेबाक़ क़लम📝
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शब को अपने काज़ल का गुरुर बहुत था
और उस काज़ल का मुझे सरूर बहुत था।
मग़र अफसोस ये दिन जो चढ़ा,
दोनों टूटे कांच के चटकते ग्लास की तरह।-
बिस्तर से बेज़ार इस बदन को अब क्या चाहिए,
मां सा स्पर्श... बाप सा साया...
और इन जफाओं में दवा दुआ सिफा चाहिए।
फफक के रोए तो बस इतना करना
कि कोई देख ना ले...
तन्हा कमरे में कस का धुआं धुआं चाहिए।-
मंज़िल के तलबदार मुसाफ़िर तू जाएगा कहां...
एक दिन मर जाएगा,
जलेगा ख़ाक होने को या शरीर तेरा क़ब्र जाएगा।
रुकता नहीं कारवां उसकी कठपुतलियों का,
ये कटु सत्य अपनाने में तेरा सब्र जाएगा।
ना मिलेेगी जिंदगी ना मौत सुकूं से,
मग़र छोड़ के जिस दिन नेक़ी के निशां जाएगा
तो यकीं मान...तेरे बाद भी तेरे चाहने वालों तक
तेरा असर जाएगा।-
कशिश हो कायनात हो कयामत भी,
हए.... वफ़ा हों वज़ह हो वजाहत भी।
ना उम्मीदी में उम्मीद हो,
और ख़ुशी की झोलाभर ख़रीद हो।
बुख़ार हो दवा हो,
सज़ा हो मज़ा हो।
तुम डेढ़ पल इतमीनान के हड़बड़ी में,
तुम ही हो हल हर गड़बड़ी में।
गीत की झनकार हो,
मेरी जीवनी का सार हो...साकार हो।
तुम सवाल हो जवाब हो,
प्रौढ़ हो शबाब हो।
तुम मुकम्मल हक़ीक़त और पूरा ख़्वाब भी,
तुम मेरे चाहतों की फ़ेहरिस्त उर्फ़ क़िताब भी।-
आज का धर्म आपको ज़ाहिल बनाता है इसलिए किसी भी धर्म का कट्टर अनुयायी होना इंसायिनत के लिए घातक है। बह्मांड को चला रही शक्ति को कोई रूप देना ज़रूरी नहीं बल्कि मन में ऐसी शक्ति को मान लेना ही काफ़ी है। क़िस्म क़िस्म का दिखावा कभी कोई भक्ती हो ही नहीं सकती, हाँ अग़र आप ईश्वर अल्लाह के नाम से शुद्ध होते हैं तो पूजा सजदा करने में कोई हर्ज़ नहीं। किसी रूप को चाहें मत मानो, ना पूजा करो कोई हर्ज़ नहीं, हाँ मग़र निरादर करना भी ग़लत है। भजन नास्तिक भी सुने तो कोई हर्ज़ नहीं, संगीत कानों को अच्छा लगता है। क़दम कभी किसी दरगाह, मस्ज़िद, मंदिर, चर्च, गुरुद्वारा थम जाए तो कोई हर्ज़ नहीं लेकिन भगवान समान मातपिता और गुरू को ही भूल जाओ तो वो ग़लत है। शुद्ध ही होते हो अग़र आप शक्ति को याद करने से तो कोई हर्ज़ नहीं लेकिन तेज़ आवाज़ों में अज़ान, जागरण, कीर्तन कर दुनियाँ को जगाओ तो वो ग़लत है।
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जब पोशाक सिल कर ही बनती है,
तो तुरपाई के धागें दिखने में शर्म कैसी।
खंजर घोप.. सामने से पैरवी का नाटक करें ज़माना
पीठ पलटते ही कहें "तेरी ऐसी की तैसी"-
मैं: ओए मोटापे तुझें मकानमालिक किसने बनाया, तूने जबरदस्ती का प्लॉट हथियाया।
मोटापा: शर्म कर मोटे.. तूने इतना खाया, ना कसूर मेरा.. तेरी बला से मैं तुझमें समाया।-