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शायद ये प्रश्न इक चिन्ह के रूप में ही चिंहित रहेगा, हमारी खुशियों की खुशियाँ ही इन खामोश ज़िन्दगी में ईर्ष्या के निशाँ क्यूँ बन जाती हैँ ?
यादों की समाधियाँ तो दिलों में ही हुआ ही करती हैं, फिर क्यूँ पाषाणों के सीने में खंजर चला गुफाएँ खोदते हो?
या इन निशाँ की लहरों से छूटीं इन यादों के अवशेषों की बूँदों का इंतज़ार अभी शेष है ?
क्यूँ की मोहब्बत के तराशे दर्दीले शब्दों को तो ढूँढ़ते देखा ही जा सकता है !!-
ये जिँदगी का कैसा महल है यारों ?
मैं ढूँढ़ता ही रहा और तू इक ख़्याल बन गई..
मेरे अविश्वाशों की राहों में विश्वासों की आहुति बन गई..
अरे तू तो खुद इक खुशियों का हवन कुँड है रे...
तभी तो हवन की अनामिका से ज़िन्दगी की शाकल्य आहुति बन गई,
यूँ ही देख लो मोतियों को देह से छूने के पहले,
सीपों को अपनी देह को श्रद्धांजलि का दान लेना ही पड़ता है...
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आस्थाओं के चरमराते पत्तों पर, ज़िंदगी के बागबाँ तुझे निहार रहे हैं,उन सूखे पत्तों की चरमराहट सुनने को, जो अपने निशाँ देने जा रहे हैं की चलो कुछ बूँदें दे दूँ, उनकी अँखियों की अँजुलि में कि कहीं अँखियाँ की कोरे प्यासी ना रह जाएँ !
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तेरी यादों की खुशबू अब कस्तूरी बन निकलने लगी है, सम्हाल के सँजो लेना ये कस्तूरी तुम, क्यूँकी तेरी ख़्वाबों की महफ़िल अब महकने सी लगी है..
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निःस्वार्थ ही अभिव्यक्तियों का भावार्थ है,
इसी कल्पना को क्यूँ ना अपने श्रम में परिवर्तित कर लें लोग...-
क्या यूँ ही चिंतनों के विश्राम स्थलों के पुनर्जन्म हुआ करते हैं ? रिश्तों के शब्दाक्षर नहीं हुआ करते हैं , बेचारों की श्रेणी के रिश्तों के दर्पण, खोखले दरख़्तों की देह से रिसते खुरदुरी त्वचा के अवशेष हुआ करते हैं , अब देखो ना - पोरों को पकड मंजिलें , मंजिलों की निश्चितता को निर्धारित नहीं करती है !!
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श्रद्धा की पलकों ने बोला की अँखियाँ की नमी का कुछ अहसास हुआ, हमने तो स्नेह की सिलवटों को सँवारा तूने तो अँखियों पर पहरे बैठा दिए,,!!
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