"मैं" करता तो क्या होता, वो करे तो सबकुछ होए।
जो वो ही अपना ना हुआ, तो जग का करे क्या कोए।।
तेरे भीतर दहक रहा जो "मैं", है वो प्रलय सम अंगार।
लोभ-क्रोध के मूल में, यह "मैं" ही तो है वो दुष्ट विकार।।
तुझसे बनाए बंधन “मैं” सदा, कराता भ्रम में काम।
जो तू तज दे इस "मैं" को, तो पावे शिव का धाम।।
जपे नाम जब भोले का, तो मिटे अहम का भार।
"मैं" से हो जो मुक्त मन, तो वही तरे संसार।।-
"मैं" भीतर ही भीतर उफनता एक उद्वेलित सा समंदर है,
"मैं" कौतूहल में रमा हुआ एक विध्वंसक वायु का बवंडर है।
"मैं" सुप्त पड़े ज्वालामुखी का दहकता हुआ एक अंगार है,
"मैं" प्रचंड वेग की वर्षा से जन्मी भीषण प्रलय का विस्तार है।
"मैं" उद्विग्न, आंदोलित, चंचल मन के विचारों का संचार है,
"मैं" कुपित, पीड़ित, असंतुलित भावों का एक विनाशक सार है।
"मैं" ही तो है अहम का जनक, यही तो मैं का व्यवहार है,
"मैं" ही लोभ, "मैं" ही क्रोध, "मैं" ही सर्व दूर विकारों का आधार है।
फिर भी न जाने क्यों "मैं" "मैं" करता है ये जग,
जो तजे इस "मैं" को उसका ही होता उद्धार है ,
नाम जपे जो भोले का उसका ही होता बेड़ा पार है।-
सुनो ज़रा, तुम आँखें मूंदे, क्या कह रही तुमसे ये बरखा की बूंदें?
क्या अब भी याद है तुम्हें —
वो कच्ची सड़क पर अपनी घंटों भर बातें, वो तारों भरी चुप अंधेरी रातें।
वो सर्दी की कपकपाती रात में, सिगड़ी पर जलते अंगारे।
और वो होली पर रंग-बिरंगे, ठंडे पानी के ढेर सारे गुब्बारे।
वो ताज़े उपलों पे चाची की थाप, वो चूल्हे के धुएं में सुलगती आग।
हर चीज़ में मांगते हम अपना भाग, और दादी के गाए वो वैजयंती राग।
वो आंगन पे बिछी खाट, उस पर रेडियो सम्राट।
वो ठंडी मावा कुल्फी, और पप्पू पनवारी की आलू चाट।
वो टायर दौड़ाने की मीठी यादें, और गिल्ली-डंडा संग कंचों की सौगातें।
वो मेलों में नट के तमाशे, और पुदीना, जल-जीरा वाले पानी के बताशे।
वो मीठे मुलायम बुढ़िया के बाल, वो पुराना कुआं और वो बरसाती ताल।
वो कड़वी निबोरी, काका भुवन के कच्चे आम, वो आचार से भरे मिट्टी के बोइआम।
नामक के संग खट्टी इमली के चटकारे, वो बब्बन की चाय, अड़ियल ताऊ के आलूबुखारे।
वो अमरूद की क्यारी, और संतरे सारे, जो मामी को लगते थे सबसे प्यारे।
वो बचपन के दिन, जो बीते हमारे, काश, लौट आएं फिर से वो सारे।
याद अभी भी आते हैं वो, और इन आँखें को नम कर जाते हैं वो।
वो दिन भी, क्या सुहाने दिन थे, उन्हें फिर से जीने को मन करता है।
इस बरखा की बूंदों में भीग लूं ज़रा, मेरा फिर से वही बच्चा बन,
उस बचपन को जीने का मन करता है।-
इन बादलों के समंदर में डूब जाने को जी करता है,
हूँ बहुत दूर अपने उस घर से,
पर कभी-कभी उड़कर वहीं पहुंच जाने को जी करता है।
पहाड़ तो घर है मेरा, मैं गर्व से एक पहाड़ी हूं।
पर अपने इस सुंदर घर से दूर,
मैं परदेस में, रोज़ी रोटी के लिए बसा,
एक नौकरी पेशा मज़दूर दिहाड़ी हूं।
काम और पैसे की मजबूरी ने, न जाने क्यों मुझको ऐसे जकड़ा है।
घर से दूर इस अनजाने परदेस ने, इस तन को मेरे पकड़ा है।
रूह और मन तो आना चाहें घर मगर,
उस खुदा पे भी मेरी दुआ का होता नहीं असर।
क्या पता उसको कितनी है मेरी खबर,
या है वो मेरे इस दर्द से पूरी तरह बेखबर।
मैं नौकरी से छुट्टी लेने में हर बार ही हारा हूं,
होली दीवाली पर भी घर से रहा दूर बेचारा हूं।
पर जब कभी भी घर आके, जो मिलता हूं में सबसे,
वो बीते हसीन दिन याद आ जाते है भाई कसम से।
मैं आज भी गांव के हर आमा बाबू का सबसे लाडला,प्यारा,दुलारा हूं।
गांवों जाकर उन गलियों में फिरता मतवाला आवारा हूं।
पुकारता है वो घर मेरा, मैं जाने को वहां तरसता हूं।
हर रात तकिए पे अपने,
घर ना जा पाने के ग़म में, मैं आंखों से ही बरसता हूं।-
एक रिश्ता कहीं रह - सा गया है, उस अनकही इक कहानी से,
उस गुज़रे हुए बचपन और इस ढलती हुई जवानी से।
उन मिट्टी के कच्चे घरौंदों और इन बंजर उजड़ मकानों से।
उन कच्ची पगडंडियों और इन सुने पड़े वीरान बसेरों से।
उन बीते हुए सभी सवेरों और कई तन्हा रातों के गहरे अंधेरों से।
एक रिश्ता कहीं खो - सा गया है, कुछ अंजाने चेहरों से,
कुछ भूली बिसरी यादों और बेबाक हसीन मुलाकातों से ।
कुछ बचकानी सी बातों और बेहद गेहरे जज़्बातों से।
कुछ अनचाहे से किस्सों और ज़िंदगी के चंद हसीन हिस्सों से ।
कुछ आधे अधूरे मतलों से, कुछ ना पूरी हुई नज़्म के मिश्रों से ।
एक रिश्ता कहीं सिमट - सा गया है, उस इश्क़ के अंजाम में,
उनके नैनों से बरसते आब में, उस ढलती उदास शाम में।
लबों पे अटकी बात में और हाथों से छलकते जाम में,
दिल के बदले हालात में और दूरियों के ख्यालात में।
उन चंद अधूरे वादों में इन बेवफ़ा दगाबाज इरादों में।
एक रिश्ता कहीं उलझ - सा गया है, इन बेचैन करते ख्वाबों में,
कुछ अनसुलझे सवालों में और उनके तोड़कर झकझोरते जवाबों में,
एक रिश्ता कहीं ठहर - सा गया है...
एक रिश्ता कहीं अधूरा रह - सा गया है...-
जो धन माटी सम मट-मैला, मन क्यों इसके पीछे जाए?
जो खुद को सहज सरल बना ले, वो जीत सारा जग जाए।
व्यवहार जिसका हो सोने सा, वो सच में राजा कहलाए,
फिर क्यों बटोरे माटी सा धन, क्यों इसमें खुदको रहा बिसराए?
यदि मन को हो रमना, तो क्यों ना वो भोले में रम जाए?
नाम जपे जो भोले का, वह भवसागर तर जाए ।-
इस काली अंधेरी रात में, है फ़रोज़ाँ महताब भी,
कुछ तारे आसमां में हैं, और एक आप मेरे साथ भी।
दिल से दिल मिलते हैं, हाथों से मिलते हैं हाथ भी,
कुछ अलग से जज़्बात हैं, और इस दिल के हालात भी।
समझ सकें तो समझिएगा, आँखों से इश्क़ के मसलात भी।-
ऐसे ही बस ख़्वाब की कश्ती पर चढ़कर,
हम इस दरिया से पार नहीं हुए थे।
उफनती लहरों के इन थपेड़ों से लड़कर,
हम भी कई बार ज़ार-ज़ार हुए थे।
टूटी-बिखरी थीं सारी उम्मीदें,
हौसले भी बेहिसाब तार-तार हुए थे।
ऐ ज़िंदगी! तू कभी तो सँवरेगी,
इसी आस में न जाने हम
कितनी मर्तबा ख़ाकसार हुए थे।-
क्यों तू करता तेरा-मेरा, यहां क्या ही तेरा होए।
जब सब अनजाने इस जहां में, तो तेरा अपना कहां है कोई।।
पहले जान ले खुद को तू, क्यों झूठी पहचान लिए है सोए।
जाना जब तूने खुद को ही नहीं, तो दूजा कोई तेरा कैसे होए।।
जो जानने निकले खुद को तू, तो किसी और की आस न होए।
तेरा-मेरा छोड़कर बंदे, जब तू भोले शंकर में खोए।।
खुद ही में तब शिव-राम मिलेंगे, फिर पत्थर क्यों पूजे कोई।
हो नियत भली, हो मन पावन, अश्रु-जल से पाप सभी तू धोए।।
ना डुबकी लगे, ना तन भीगे, पर सच्चा गंगा स्नान यही होए।
तन धोकर मन रखा गंदा, वो गंगा स्नान कभी फलित न होए।।
क्या हुआ जो हरिद्वार-काशी, प्रयाग के तीर्थ नहीं कर पाए।
जब खुद में ही सब तीर्थ बसे हों, तब सब तीर्थ स्वयं हो जाए।।
"मैं सबका, सब मेरे अपने," जब तेरे मन में भाव ये जग जाए।
तब रहे न कोई कुंठा-तृष्णा, जीवन सुंदर, सुगम बन जाए।।
बस भोले का ध्यान करे जो, उसकी हर पीड़ा हर जाए।
नाम सुमिरन मात्र से ही, यह जीवन भवसागर तर जाए।।
पा ली फिर सच्ची पहचान अपनी तुमने, जो कहीं गई थी खोई।
सबमें जब भगवान दिखें, तो सच्ची श्रद्धा वही है होई।।-
मैं कुछ नहीं, मैं कहीं नहीं,
जहां होना था मुझे, मैं वहां भले समय पर पहुंचा नहीं।
और जहां पहुंचने की चाह है मेरी, अब तक वहां मैं पहुंचा नहीं।
बीच राह में थम कर, भले ही चंद सांसे ली हैं मैंने,
पर ये हौसला है जो मैं टूट कर अब तक बिखरा नहीं।
थोड़ा पीछे और भले ही समय से थोड़ा धीमे चल रहा हूं मैं,
मगर ये सफर अभी जारी है, मैं अब तक पूरी तरह से हूं निखरा नहीं।
हालात भले ही जैसे भी रहे हों, मैं उनके आगे अब तक झुका नहीं।
चलता रहा, जिम्मेदारियों का बोझ लिए मैं, थका भले पर रुका नहीं।
चाहे कैसी भी रही हों मुश्किलें रह में मेरे,
इस सफर को करने का मैंने अब तक बदला मेरा फैसला नहीं।-