Mohini Jha   (मोहिनी)
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हृदय निस्पंद, प्राण द्युति-हीन,
मधुर, तुम जीवन का संगीत !
Joined 22 November 2017


हृदय निस्पंद, प्राण द्युति-हीन,
मधुर, तुम जीवन का संगीत !
Joined 22 November 2017
19 FEB 2021 AT 0:11

स्वर्ण-मुकुट ने दान हृदय का माँगा पर्ण-कुटीरों से,
पुष्प लताओं के पल्लव निकले अभेद्य प्राचीरों से,
चरणों के निर्माल्य ने हरि से माँग लिया संसार सकल,
मुनि -उपवन की कृष्णकली ने प्रेम किया तूणीरों से।

देख! दुखों के वंशवृक्ष पर पारिजात का फूल!
सखी, यह भाग्य हुआ या भूल?


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6 NOV 2020 AT 11:43

मन की मन को वासना, तन का तन को मोह,
मन को दंड विराग है, तन को दंड विछोह।

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5 APR 2019 AT 18:35

जिस रोज़ मस्तक से बड़ा
कंधे का बस्ता हो गया,
और खेत जलते देखकर
सूरज भी छिपकर रो गया।
जब दीवार में उभरी दरारें
चौखटों तक आ गईं,
पगडंडियाँ जब धीरे-धीरे
पाँव सारे खा गईं।
जबसे कि दानव सत्य और
परियाँ 'किताबी' हो गईं,
झोपड़े की रोटियाँ
जबसे 'चुनावी' हो गईं।

बस उसी दिन से-
मेरी दाईं तर्जनी की सीध वाले
अवलियों में चिर-प्रकाशित-
नभ-भुवन के चपल नर्तक
शुभ्र-मुख इन तारकों ने,
घुँघरुओं को तोड़ दिया है,
स्वप्न देखना छोड़ दिया है।

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28 MAY 2019 AT 22:25

अधिक हो कौन काठ का मोल?
कहाए जीवन किसका साँच?
लगे है एक कान्हा के होंठ,
बने है एक चूल्हे की आँच !

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6 APR 2019 AT 10:37

कलिकाओं को शिक्षण
सर्पों से दिलवाया जाता है,
मकरंद नहीं, अब तितली को
बारूद पिलाया जाता है,।

कुटिल कपोतों के प्रहार से कोकिल, कंठ बचाओ!
श्यामा, गीत नाश का गाओ!

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6 APR 2019 AT 2:17

वन तुम्हें आज दुत्कार रहा,
है खड्ग वृक्ष भी धार रहा,
आरती उतरवाकर पुष्पों से,
तुम्हें गिद्ध ललकार रहा।

बैठो आज बबूल डाल पर, दग्ध कंठ से विष बरसाओ!
श्यामा! गीत नाश का गाओ!

(...जारी है..)

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13 FEB 2019 AT 13:53

प्रतिबंध सागरों पर पोखर लगाएँ सारे,
छिपकर है जलद बैठा, रोता अनल किनारे,
मंदिर के गर्भगृह में बैठा सियार गाए,
कोयल का मगर शाखों पर कूकना मना है!
कैसी विडंबना है.!

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30 DEC 2018 AT 18:56

हरदम पइसा राखिए, बिन पइसा सब सून।
पइसा बिन बीते नहीं, मई-जनवरी-जून।।

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30 DEC 2018 AT 16:41

सुनो! कहने को अभी तुमसे बहुत कुछ रह गया है,
रेत का अपना घरौंदा बीते सावन ढह गया है,
ठहरो तनिक, तुमको बताऊँ पंछियों से छिप-छिपाकर,
एक साँझ ढलता सूर्य मेरे कान में क्या कह गया है.!

दो क्षणों को दान दे दूँ युगों की सौगात साथी?
फिर विदा की बात साथी?
क्यों विदा की बात साथी?

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30 DEC 2018 AT 16:08

मैंने स्वर्णिम कोष अपना चंद्रिका पर जब लुटाया,
और रजनी के दृगों को कालिमा से भर सजाया,
टूटते तारों ने मुझको देखकर जब की ठिठोली,
तब कहीं जाकर के भिक्षा में तुम्हारा संग पाया।

कहो, क्यों कालिख से रंग दूँ कोपलों की गात साथी?
फिर विदा की बात साथी?
.....

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