कितना तन्हा हूँ मैं!
किसी सुदूर जंगल में बने एक प्लेटफार्म की तरह जिस से महीने में कोई एक रेलगाड़ी छूकर गुजर जाती हो
और वह उस रेलगाड़ी के इंतजार में अगला महीना भी गुज़ार देता है।
इतना तन्हा हूँ मैं।
इतना तन्हा की अब मेरे बालों की लटाएँ सफेद हो कह रही हैं,
की गोदरेज की काली स्याही पिछली दफे कब लगाई थी।
कब लगाई! यह सच में याद नहीं।
इतना तन्हा...
याद तो यह भी नहीं की पिछली दफे कब मैंने अपना पसंदीदा आम खाया।
या वो मौसम जिसकी बारिश ने मुझे फिर से जवान कर दिया हो।
इतनी बेफिजूल बातों को कह पा रहा हूँ, इतना तन्हा हूँ मैं।
इतना तन्हा हूँ मैं।-
DU || theatre...
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इस कदर दर्द का एहसास हो रहा है मुझे,
जैसे ज़ख्मों पे कोई काँच खरोंच रहा है मुझे।
तेरी खुमारियों की आँच बुझ गई थी कबकि,
अब तो न कोई ग़म, न कोई काम पूछ रहा है मुझे।
खुदाया किस कदर खाएँ, किस तरहा से जिये,
ज़िल्लते चार तू भी परोस रहा है मुझे।
तन्हाइयों से भी सुकून ने तलाक ले लिया
मान, जाने कोन मेरा यार कोस रहा है मुझे।-
या तुम मेरी बात मानो, या मुझसे अपनी बात मनवालो।
ऐसे अगर काट लेंगे दिन तो, कोई फसाद नहीं होगा।
छोटे-मोटे कदम बढ़वाकर, वापस उल्टी दौड़ लगवा लो।
ऐसे वादे कल भी लो तुम, तो कोई आजाद नहीं होगा।-
Title: नाकाम
किससे इंतिसाब करोगे,
कैसे इंक़लाब करोगे|
अब क्या रह गया जाना,
किसके खातिर ख्वाब करोगे|
कर्ज से ज्यादा सूद है मुझपर,
कैसे मेरा हिसाब करोगे|
गुरबत में है दो दिन बाकी,
कल करोगे कि आज करोगे|
सारी गलती माफ की मैंने,
अब किस पर तुम बात करोगे|
ला-मजहब हूंँ मैं तो यारा,
कौन खुदा फरियाद करोगे|
किससे इंतसाब करोगे,
कैसे इंक़लाब करोगे|
यह कूँचा नाबीनों का है,
इसमें क्या आफताब करोगे|-
समंदर मे ओझल होते यह जमीन के किनारे,
एक सीध खड़े वह नाव और उनके पतवा सारे।
आसमाँ पर हवाई जहाजों का टिमटिमाना,
हौले हौले मद्धम मद्धम हवाओं का बहता जाना।
सब एक रुत को मानकर चल रहे हैं।
तो फिर अब इन लहरों की बगावत कैसी,
एक के बाद एक इन लहरों की चट्टानों पर चोट करने की चाहत कैसी।
कभी तो लहरों की चोट से चट्टान टूट जाएँगे।
मैं तब तुमसे मिलने की उम्मीद भी छोड़ दूँगा।
तब तक, मैं चट्टान बन तेरे ना आने की लहरों का सामना कर लेता हूँ।-
मेरे सामने एक कागज है।
उस पर एक कलम यूँ ही बे-सहारा पड़ी हुई है,
कुछ लिखे जाने के इंतजार में।
इंतजार उन हर्फ का जो मेरी पेशानी पर पड़ रहे बोझ का भार उठा सके।
जो मेरी उंगलियों के काँपते हुए ताल को एक सरगम बना, मेरे भाव गा सके।
मगर क्या फायदा इतने साज ओ सामान का,
जब मेरा दिमाग का एक हिस्सा जिसे इस वक्त सोचना चाहिए वह सुन्न पड़ा है।
मेरी आँखें नम पड़ी हैं,
जबकि मुझे खुद नहीं मालूम कि इस बेवजह बहते अश्कों की वजह क्या है।
और मेरे हाथ जैसे लकवे की चपेट में आए मरीज के शक्ल थमे हुए हैं,
उस कागज के ऊपर बिना किसी हलचल के।
गौर करूँ तो एहसास होता है कि इंसान कितना बे-अदब, बद-मिजाज़ शख्सियत है,
जो कहना होता है वही नहीं कह पाता।
जैसे तुम और मैं।
मेरे सामने एक कागज है।-
एक बड़ी पुरानी कवायत है कि रोशनी अंधेरा मिटाती है,
टिम-टिम, जग-जग जगमगाती,
मगर यह अंधेरा मिटाती है या बस चंद लम्हों के लिए उसे हटाती है,
जैसे कोई लेन-देन हो उसका कोई भ्रम करने की साजिश।
अब दुनिया को भ्रम इस बात का है कि रोशनी के जाने से अंधेरा होता है,
और सच यह है कि अंधेरा तो हमेशा से है,
रोशनी बस कुछ वक्त के लिए आती है,
उजाला करती है और फिर अंधेरे के आगोश में समा जाती है।
एक बुलबुले की भाति, एक लम्हे का सतरंगी नजारा और फ़िर हुसस....स्प्लैश....शशश।
सब ख़त्म।
कैसा होता अगर वास्तव में किताबे कहानियाँ ना बताती।
मैं यह कविता ना लिखता और ना ही तुम मेरे मन का हाल जान पाती।
हम उस अंधेरे की शक्ल गुमनाम रहते,
ना मिलना होता,
ना किरने होती,
ना रोशनी उम्मीद जगाती,
और ना ही वापस समा कर कहीं खो जाती।
मेरी उम्मीद की तरह स्याह... सन्नाटे में।
कितना अच्छा होता अगर पढ़ाया जाता कि अंधेरा वास्तविक है और रोशनी भ्रम।
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आसमाँ के हम भी बिखरे हुए सितारे हैं
ख्वाहिशें पूरी करते हैं हम टूट-टूट कर।-