ज़िद्दी, बेख़ौफ़, आज़ाद, अल्हड़, आवारा,
फकीरों सी हर एक सड़क पर फिरूंगी,
एक दिन मैं मेरे लिखे किसी उपन्यास सी दिखुंगी,
तुम देखना मैं तुम्हें सतरंगी लगूंगी ।
-
आप देखें क़्या पढ़ते हों, अल्फाज़ या जज़्बात।
_______... read more
भारी सीना, बेचैन सांसें, आईने में इठलाता समय,
हर सुबह नया संघर्ष, हर शाम वही पुरानी हार,
एक रात उसने अपना मन उड़ेल दिया ,
सपनों से बने हाशिए वाले ज़रूरतों के पन्नें पर।
और फिर अंत की शुरुआत में उसने लिखा,
कि उम्मीद बाकी है अब भी...
उसमें जितनी उम्मीद बाकी थी,
उसने बस इतना ही लिखा !
-
परिवार की उम्मीदें, बचपन के सपने, रोजगार की ज़िद,
और खुद पर भरोसा होने के बावजूद
क्या पसंद है, क्या सही है, और क्या जरूरी है,
के बीच के फ़र्क में उलझी हुई मैं!
इन सब से परे, जब वह मेरे करीब आया,
जितनी मेरे सीने में जगह थी, मैंने सुकून भरी सांसें ली,
और मुस्कुराती हुई ज़िंदगी जीने लगी।
बाद में समझ आया की शादी के लिए
वह जरूरी है, सही है, और पसंद है, नहीं!
वह किस धर्म, किस जाति का है, यह मायने रखता है।
-
क्या ही फर्क पड़ गया खरगोश के तेज होने से
उसपर बनी कहानी में वह कछुए से हारा हुआ ही कहलाया जाता है!
और क्या ही फर्क पड़ गया कछुए की एक दौड़ जीत जाने से
वह खरगोश से तेज़ नहीं हो गया,
उसकी पहचान आज भी उसकी धीमी चाल से ही होती है!
तो आप अपनी जिंदगी के जो भी हो, कछुआ या खरगोश, बस दौड़ का हिस्सा बने रहिए।
क्योंकि मंजिल तक पहले पहुंचने से कहीं ज्यादा जरूरी है आपका मंजिल तक पहुंचना।
-
दीवार से सिर टकराऊं, जमीन पर सो जाऊं, पैर पटकूं,
चीखूं-चिल्लाऊं खुद को मारूं, या चाहे जितना रो लूं....
जब दरवाजा खुलेगा मैं तुम्हें मुस्कुराती हुई ही मिलूंगी!
-
यहां-वहां से बचते-बचाते, अपनी जिंदगी जीते-मरते,
धीरे-धीरे समझ आ रहा है कि मां-बाप को खुश करते हुए
हम असल में उन में बसे समाज को खुश कर रहे होते हैं !!-
"भाई साहब! सोचो अगर जिद में आकर, उस आड़ी जात वाले के साथ भाग जाती तो घरवाले कहां मुंह छुपाते फिरते ?
इस से तो अच्छा ही हुआ की लड़की ने आत्महत्या कर ली।
शुक्र मनाओ, मां बाप की इज्जत बच गई।"
- चिता को अग्नि देकर लौटते हुए गांव के एक बुजुर्ग ने कहा!
-
आसान नहीं है कुछ भी,
वक़्त लगता है समझना होगा,
समझाना होगा।।
कामयाबी की चाह में,
कभी खुद से कभी ज़माने से,
कभी परिवार से लड़ना होगा।।
जितना मुश्किल सफर है,
मुकाम भी बेहतरीन होगा यह भरोसा,
हर रोज़ खुद में भरना होगा।।
-
सड़कों के किनारे ठेला लगाना,
पोहा, पकोड़े, फल, फूल, माला बेचना,
सिग्नल पर पेन, गुब्बारे लेकर घूमना,
मालिक की दुकान पर काम करना,
बड़े घर, होटल में नौकर बनना,
आफिस, स्कूल, अस्पताल, में सफाई करना,
या इसी तरह के रोजगार के तमाम दूसरे तरीके....
यह सब काम करने वाले पुरुष नाकामयाब है।
और यह सब काम करना भी औरतों के लिए कामयाबी है।
स्वयं को पीछे छोड़ देने के लिए स्त्री ने ढूंढ ली एक नई राह,
जो ठुकरायी गई थी कामयाब पुरुषों के द्वारा।
या समानता के तराजू में जमाना इतना सिकुड़ा हुआ रहा,
कि पुरुषों की हार पर पहुंचना भी स्त्री के लिए
जीत जाने के बराबर हो गया।-