मुरझा रहे हैं उसके दिए गुलाब, मैं उन्हें सड़ने से कैसे बचाऊं!
उनसे गुलिस्ता सजाऊं या रखकर किताबों में भूल जाऊं !!
वह एक शख़्स मिला तो बीच में ज़माना आ गया !
इसे नसीब समझूं या सबसे लड़ने लग जाऊं !!
धर्म और जात-पात के मसले में अनपढ़ है इश्क़!
यह बात बिरादरी को कैसे समझाऊं !!
सही ग़लत में समय बीत गया मुझसे बहुत आगे !
मैं अब अकेली उसके बिना कहां जाऊं !!
बनूं अपने कृष्ण की राधा, मीरा या रूक्मणी !
या बेटी होने का कर्ज़ चुकाऊं !!
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आप देखें क़्या पढ़ते हों, अल्फाज़ या जज़्बात।
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भरोसा इतना है की एक तुम्हारे संग भाग चलूं
मैं दुनिया की किसी भी कोने में
फिर अगर किसी रोज तुमने यह कह दिया
कि जो अपने मां-बाप को धोखा दे आई
वह किसी की सगी नहीं हो सकती!
एक यह डर भी मुझे ठिठकाए रखता है
मेरे घर की सीलन भरी चारदीवारी में।
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ज़िम्मेदारी, बेरोज़गारी, संघर्ष और
परिवार के खांचे में फिट होने का दबाव
यह आज़ादी मुझे समझ नहीं आती है !
शिकायतें, निराशा, थकान और अवसाद
कितनी तना-तनी है आजकल घरवालों से
बात करना चाहता हूं बहस हो जाती है !
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ज़िद्दी, बेख़ौफ़, आज़ाद, अल्हड़, आवारा,
फकीरों सी हर एक सड़क पर फिरूंगी,
एक दिन मैं मेरे लिखे किसी उपन्यास सी दिखुंगी,
तुम देखना मैं तुम्हें सतरंगी लगूंगी ।
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भारी सीना, बेचैन सांसें, आईने में इठलाता समय,
हर सुबह नया संघर्ष, हर शाम वही पुरानी हार,
एक रात उसने अपना मन उड़ेल दिया ,
सपनों से बने हाशिए वाले ज़रूरतों के पन्नें पर।
और फिर अंत की शुरुआत में उसने लिखा,
कि उम्मीद बाकी है अब भी...
उसमें जितनी उम्मीद बाकी थी,
उसने बस इतना ही लिखा !
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परिवार की उम्मीदें, बचपन के सपने, रोजगार की ज़िद,
और खुद पर भरोसा होने के बावजूद
क्या पसंद है, क्या सही है, और क्या जरूरी है,
के बीच के फ़र्क में उलझी हुई मैं!
इन सब से परे, जब वह मेरे करीब आया,
जितनी मेरे सीने में जगह थी, मैंने सुकून भरी सांसें ली,
और मुस्कुराती हुई ज़िंदगी जीने लगी।
बाद में समझ आया की शादी के लिए
वह जरूरी है, सही है, और पसंद है, नहीं!
वह किस धर्म, किस जाति का है, यह मायने रखता है।
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क्या ही फर्क पड़ गया खरगोश के तेज होने से
उसपर बनी कहानी में वह कछुए से हारा हुआ ही कहलाया जाता है!
और क्या ही फर्क पड़ गया कछुए की एक दौड़ जीत जाने से
वह खरगोश से तेज़ नहीं हो गया,
उसकी पहचान आज भी उसकी धीमी चाल से ही होती है!
तो आप अपनी जिंदगी के जो भी हो, कछुआ या खरगोश, बस दौड़ का हिस्सा बने रहिए।
क्योंकि मंजिल तक पहले पहुंचने से कहीं ज्यादा जरूरी है आपका मंजिल तक पहुंचना।
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दीवार से सिर टकराऊं, जमीन पर सो जाऊं, पैर पटकूं,
चीखूं-चिल्लाऊं खुद को मारूं, या चाहे जितना रो लूं....
जब दरवाजा खुलेगा मैं तुम्हें मुस्कुराती हुई ही मिलूंगी!
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यहां-वहां से बचते-बचाते, अपनी जिंदगी जीते-मरते,
धीरे-धीरे समझ आ रहा है कि मां-बाप को खुश करते हुए
हम असल में उन में बसे समाज को खुश कर रहे होते हैं !!-