MOhaNi dEshMuKh   (Alfaz_MD)
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Joined 1 October 2017


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27 SEP AT 10:23

लड़कियों को होना चाहिए कागज़
या फिर हवा
या फिर उससे भी हल्की !

ताकि उम्र के किसी भी पड़ाव पर वह
'भारी बोझ' ना लगने लगे
पिता के नाज़ुक कांधों पर।

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25 SEP AT 18:35

कभी तरसे नहीं हो तुम,
घर में बेटों जितना
सम्मान, अधिकार और आज़ादी पाने के लिए।
.......
बड़ी आसानी से कह दिया अब भेदभाव नहीं होता!
.......

लड़कियां आज भी चाहती हैं
काश! वह होती 'बेटा'।

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24 SEP AT 16:15

जब खत्म होने लगे हवा,
पास ना हो कोई भी दवा,
तुम बस अपने मन को जीत लेना,
सुनो! जी भर कर चीख लेना।

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19 SEP AT 22:01

सावन के मेरे ख़्वाब सारे,
भरी बारिश में मर गए प्यास से !
बड़ी बंजर थी किस्मत की ज़मीन,
मेरा अक्स डूबा अश्कों के सैलाब में !

आसमान में तपते सूरज पर,
फिर से काली गहरी बदली छा गई !
फक़्त तुम ही बचे थे पास मेरे,
अब तुम्हें भी अदाकारी आ गई !

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19 SEP AT 21:30

.......

और फिर जीतना इसलिए भी जरूरी है,
क्योंकि उन्हें यकीन है मैं हार जाऊंगी!

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8 SEP AT 22:50

"अरे यह क्या कर रहे हैं आप?
जल्दी से अपनी नाक बंद करिए!

यह हवा इन निम्न जाति वालों की सांसों से दूषित हो चुकी है।

आप अपनी उच्च जाति की मर्यादा बनाए रखिए
और अब सांस लेना बंद करिए।"

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5 SEP AT 0:12

कितने ही आंसू लौट गए, आकर आंखों के कोरों तक,
बेहद घना सन्नाटा है, कहां मिलेगा कहो सुकून अब!

सारी मेहनत पर मेरी जब, किस्मत पानी फेर गयी,
हो गया फिर-फिर शून्य मैं, धरा रह गया जुनून अब!

घर से निकला था कमाने, खाली हाथ हूं लौट रहा,
ताने, जिल्लतें और थकावट, कांधे पर टांगें मैं चला अब!

मसला सारा इज़्ज़त का है, मुफलिसी दोजख लगती है,
ठोकरें जो सह लेता था, खुली हवा भी चुभती है अब!

मैं समेटे खुद को झोले में, एक और दफा को चल पड़ा,
अब ना लौटूं अंत से पहले, मिले ना मिले मुझे सुकून अब!

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3 SEP AT 23:31

एक साफ पानी की मछली को चुनना हो
खारे पानी या बिना पानी के बीच !
इतना ही मुश्किल है रोजगार और
बेरोजगारी के बीच चुन पाना !

यह चुनाव तब आसान हो गया जब मैंने देखा
अपनी मां, दादी और नानी जैसी स्वाभिमानी स्त्रियों को
'जायज़ सम्मान' जैसे मूलभूत अधिकार के लिए
संघर्ष करते हुए।

कभी सोचो तब समझ आता है,
कितनी मजबूर रही होगी स्त्री जाति,
कि उनकी स्थिति देखकर यह 'आजकल की लड़कियों' ने
आजादी के रूप में नौकरी की बंदिशों को चुना है।

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3 SEP AT 0:00

हर मैयत के रीति रिवाजों में
मैं कभी नहीं रोयी मृत शरीर को देखकर
मैं रोयी रोते हुए जिंदा लोगों की दशा देखकर।

मैं मजबूत इतनी
मैं कमजोर इतनी

मैं स्त्री कितनी, स्त्री जितनी।

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13 AUG AT 0:06

मुरझा रहे हैं उसके दिए गुलाब, मैं उन्हें सड़ने से कैसे बचाऊं!
उनसे गुलिस्ता सजाऊं या रखकर किताबों में भूल जाऊं !!

वह एक शख़्स मिला तो बीच में ज़माना आ गया !
इसे नसीब समझूं या सबसे लड़ने लग जाऊं !!

धर्म और जात-पात के मसले में अनपढ़ है इश्क़!
यह बात बिरादरी को कैसे समझाऊं !!

सही ग़लत में समय बीत गया मुझसे बहुत आगे !
मैं अब अकेली उसके बिना कहां जाऊं !!

बनूं अपने कृष्ण की राधा, मीरा या रूक्मणी !
या बेटी होने का कर्ज़ चुकाऊं !!

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