मनीष उपाध्याय   (मनीष उपाध्याय (बागेश्वर-उत्तराखण्ड))
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Joined 25 December 2017


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Joined 25 December 2017

सुकूं की नींद भी अब सोता नहीं हूं,
मगर ऐसा नहीं की अब मै रोता हूं,

हालात और इल्जामात हैं कुछ ऐसे गहरे,
सफाई देने की कोशिश अब करता नहीं हूं,

यूं तो सहमा रहता हूं घर मै खुद के,
और दुनियां को दिखाता हूं कि मैं डरता नहीं हूं,

गुजर जाऊंगा बनकर झौका किसी रोज,
मै हवा हूं कहीं भी ठहरता नहीं हूं,

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दाग हो गए ज़रा से गहरे, धुलने में थोड़ा वक्त लगेगा,
है बहुत ही गांठ पुरानी,खुलने में थोड़ा वक्त लगेगा,

शहर भर में हर तरह देखो फरेब की धुंध घुली है,
शहर को आबो हवा बदलने में थोड़ा वक्त लगेगा,

उम्मीद तो है रोशनी की मुझे भी,तुझे भी होगी शायद,
पौ फटेगा,अंधकार छटेगा भले दिन निकालने में थोड़ा वक्त लगेगा,

खुद ही खुद का असली चेहरा ले आएगा सामने सबके,
वो मदारी है सर्कस का नकाब हटाने में थोड़ा वक्त लगेगा,

एक तेरी सत्ता को मानता हूं,तुझेसे मैं हूं और तुझमें ही हूं,
मैं,मैं और मेरा,मुझसे ये भ्रम बदलने में थोड़ा वक्त लगेगा,

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हे दुनियां चलाने वाले बता अब क्या हुआ,
हे गुलों को महकाने वाले बता अब क्या हुआ,

धूप-छाव,ठंडा-गरम,आबो हवा बनाने वाले,
क्यों घुटन है इस हवा में बता अब क्या हुआ,

जब वक्त मेरा आया तो रिवाज़ ही बदल गए,
कोई भेदभाव ना करने वाले बता अब क्या हुआ,

थक गया हूं,टूट गया हूं मैं सब्र रख रख के,
हर बात पे सब्र रखवाने वाले बता अब क्या हुआ,

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यहां हर दिन अंधेरा है और हर रात काली है,
हर चेहरे में सवाल,हर जुबां सवाल पूछने वाली है,
मुबारक हो तुम्हें रौशनी का त्यौहार दोस्तों,
सुना है शहर में अब दिवाली आने वाली है,

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द कौ की कुंछे पे,
मगन आफूं में रूंछे पे,

डान काना आग लाग रौ,सब तरफ़ धुंग धुंग हई रौ,
जंगल उजड़ गईं और धार-नौऊ ले बंजर पड़ गईं,
गाड़ भिड़ ले सुक रई,बानर-सुअरूं मौज हरई,
पढ़ी लिखी भय तू,सुणो बल दिल्ली रूछे पे,
द कौ की कुंछे पे,मगन आफूं में रूंछे पे,

पाख त्यर चूण भगो बल,रमेशदाल मूडल ढगो बल,
द्वार ले सड़ गईं कुणी,बुनियाद ले जर्जर हेग बल,
छुट्टी मनूड सिमला,मसूरी,नैनीताल तो ऊंछे शायद,
पारेकि काखी कुं भेंट हई ले कदू बरस है गो बल,
आब दयाप्त ले वीडियो कॉल में पूजछे पे.?
द कौ की कुंछे पे,मगन आफूं में रूंछे पे,

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सफर यूं तो सभी का मनभावन नहीं होता,
हर पपीहे की किस्मत में भी तो सावन नहीं होता,
सुना है के यहां हर इक बच्चे कि किस्मत में,
घर तो होता है मगर खेलने को आंगन नहीं होता,

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चारागों के तले ही चल रहे है,
हम अंधेरों में उजाले भर रहे हैं,

सारा समा खुशबू से भर गया है,
लगता है वो गली से गुजर रहे हैं,

फिर से आने लगे हैं ख़्वाब उनके,
हम फिर से रातों में बिखर रहे हैं,

मौसम चल रहा है आसमानों में मुहोब्बत का,
सितारे,चांद का सजदा कर रहे हैं,

सुना है वो कातिल ही नहीं है,
हम उनसे खामखां डर रहे हैं,

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,कैसे अधूरा कहूं,
वो मेरे वक्त और,बेवक्त का साथी था,
वो यादों का पिटारा था,या यादों का बाराती था,
अब वो वक्त ढल गया,ये समा बदल गया,
उसे क्यों बुरा कहूं,कैसे अधूरा कहूं,

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तू है तो मैं भी हूं
तेरे बिना मैं कुछ नहीं
ख़्वाब तेरे और याद तेरी
खामोशी और बात तेरी
गुस्सा तुझसे प्यार तुझसे
ये दिन और रात तेरी
तू है तो मैं भी हूं
तेरे बिना मैं कुछ नहीं

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रफ्ता रफ्ता ये दिन भी ढल गया होगा,
छुपते छुपाते चांद भी निकल गया होगा,

इक दौर भी देखा फरेब का हमने,
जैसे तैसे वो दौर भी गुजर गया होगा,

क्या कहें उससे भी,आईना ही तो था,
मेरी अक्स देख के वो भी डर गया होगा,

वो कोई और होगा यकीनन मैं नहीं था,
वक्त के साथ साथ जो बदल गया होगा,

समेट रखा था उसने इक उम्र से खुद को,
उसकी याद आई बस वो बिखर गया होगा,

आज खबर नहीं रखते,कल कहते फिरोगे,
कोई था यहां अब जाने किधर गया होगा,

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