अन्तःकरण में घट रहा, देह उससे अनजान हैं बुद्धी , चिंतन ,शब्द, और करनी का ना अब कोई मेल हैं ज्ञानी निशब्द खड़ा, जैसे अब ना कोई सार , ना पार हैं अन्तःकरण में जो घट रहा, सिद्धांतों का माखौल हैं, नग्न हो गया, अपने दंभ से पूर्वाग्रहों का टूट गया संसार हैं !
कुछ सुबह, सुबह सी नहीं होती, रातों का बोझ लादे होती हैं ! बहुत कुछ पाने के लिए जागते हैं, और पता लगता हैं सब खो चुके हैं! ता-उम्र जिस शिद्दत को जीते हैं वो एक पल में राख हो जाती हैं! ना जाने क्यूँ, वो मासूम सी सुबह फिर कभी नहीं होती!!
समय हो कठिन, पथ हो अगम, बाधाएं अविरल आती जाये, धीर रखें तुम डटे रहना, रण हैं ये जीवन, अग्नि से धधकते रहना रक्त में हैं साहस तेरे निर्भय से तुम चलते रहना !