Mन की Giरहें   (Hgdshots (just click))
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Joined 30 January 2019


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YESTERDAY AT 9:33

सतरंगी सपने मेरे
हर रंग में कुछ ख़ास
रंगों में जीवन होने का अहसास

जीवन में रंग भरूँ
सपने अपने साकार करूँ
मन में ये ही अभिलाषा है
जीवन को अपने सतरंगी करूँ
जीवन की परिभाषा को करूँ साकार
देके एक नया आकर
हर पल हो आनंद से भरा
उमंग की हो बहार
सतरंगी सपने बुनकर उड़ जाऊं
सातसमुन्दर पार 😊😊🧿🧿🌹🌹

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बाहें डाले मैं लिपट रही हूँ मैं
अपनी ही हदों मैं सिमट रही हूँ मैं
हाँ रात लम्बी है
काली सुर्ख स्याह है
पर सुकूँ है अपनी है
किसी की जिम्मेदारी नहीं
किसी की हिस्सेदारी नहीं
न कोई बात न विवाद
बस मेरी अपनी सखी सहेली सी रात
जिससे साझा कर पाती हूँ हर बात
सुनती वो फुर्सत से,
न कोई पक्षपात न कोई जजमेंट
बस भरोसा प्रेम अथाह।।

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सहते भी क्यों ना भला
वो पराया थोड़े ना है
बस आजकल थोड़ा खफा है
कुछ दिनों मैं वापिस लौटेगा
तब गिन -गिन कर बदले लूँगी
मैं भी उससे रूठ जाऊँगी
मनाये न मानूँगी
जब वो थक जायेगा मुझे मनाते मनाते तब
डाल गले मैं बहियाँ उससे लिपट जाऊँगी।।

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शायद समाज और लोग क्या कहेंगे का
उन चार लोगों का जो कुछ भी नहीं कहेंगे
परन्तु आपके पीछे ही पड़े रहेंगे
फिर शायद समाज के ठेकेदारों का
जिनको तबादला जाहहनुम में होना चाहिए
वहीं पर उनकी सल्तनत बननी चाहिए
फिर सुनाते रहें फैसला
उनकी भी तो कोई आवाम और रियासत होनी चाहिए 😁😁😁।।

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बस यूँ - ही न मुँह खोलना
लोग बातों का बतंगड़ बना देंगे
अपने हिस्से के किस्से कह कर
आपका सच छुपा लेंगे
अपने मन के मैल से आपके वजूद को
कालिख लगा देंगे
इतना होने के बाद भी चैन न आएगा उनको
फिर अंत में आपको गुनहगार और खुद को ख़ुदा का ख़िताब थमा देंगे ❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️

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छोड़ देती है
साथ परछाई पाकर संग धूप का, तू
क्या अजरअमर रहने आया है।।

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तुम जा चुके हो बहुत दूर
करके मेरे सपनों को चूर
रहते थे हमेशा घमंड में चूर
बेहद स्वार्थी बेहद मगरूर
पर हम भी थे अपनी फ़ितरत से मज़बूर
न कर पाया मेरे प्यार को कभी तुम्हारा अहम् चकनाचूर
जानते हो तुम बस इतना ही फर्क था तुम्हारी मेरी समझ में
तुम गुनाहों के देवता बने मैं सदा थी बेक़सूर।।

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कौन हमारी बात सुने
कौन हमें अपना चुने
कौन हमें सपना चुने
कौन कहे हम हैं किसी के चैन और करार
कौन कहे कोई है हम बिन बेकरार
कौन कहे किसी को है हमारा इंतजार
कौन सुने हमारे बेचैन दिल की पुकार
जो कहता है हर बार
कुछ सुन लो हमारे बेचैन दिल की
कुछ सुना दो अपने मन की
कौन सुने यह पीर पराई
पाकर छोड़ देती है इधर साथ धूप का मेरी
मेरी ही परछाई
कमबख्त फिर किस करूं मैं शिकायत
जब मेरी परछाई ही निकली हरजाई।।

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नहीं नहीं जरा भी नहीं
बस दो ही बार तो पीती हूं
सुबह और शाम
यह तो मेरे जीने का सहारा है
इसके बिना कहां भला गुजारा है
सखी बनती है इसी बहाने
मेरे घर आना चाय पियेंगे साथ में
उनसे भी तो इसी के बहाने से मुलाकात हुई थी
मेरे जीवन का हर एक पल किसी के इर्द-गिर्द
चक्कर लगाता है
सुबह होती है मुझे बस इसी का ख्याल आता है
दिन भी इसी के ख्याल में डूब जाता है
बनाकर हाथ में जब लेती हूं एक कड़क प्याली
तभी तो कमबख्त इस दिल को चैन आता है..

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सब अगर हमदर्द हैं
कमबख्त यह दर्द दे कौन रहा है
सब अगर आशिक हैं
तो दिल टूट किसके रहे हैं
सब अगर आपके अपने हैं
तो आपको अकेलापन दे कौन रहा है
है अगर इस शहर में हर कोई इतना हसीन
तो चांद पर्दा क्यों है
दम भर रहे हैं सभी यहां शरीफ होने का
तो फिर शहर के में बदनाम सुनसान मकान में यह इंसान कौन है
जो नोंच रहे हैं क्यों खुले आम जिस्मों को
सब सभी दम भर रहे हैं श्री राम होने का
तो इस शहर में सीता का नाम बदनाम क्यों है बदनाम क्यों है।।

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