मन का मुसाफ़िर   (मन का मुसाफ़िर)
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Joined 27 October 2019


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कौन यहां बचा है,काल के उस जाल से,
जो घर बैठा है या जो घूम रहा आसमान में,
जो चल रहा रास्तों में या चढ़ रहा पहाड़ में,
कोई जगह न बची है काल के उस मायाजाल में,
कौन यहां बचा है,काल के उस जाल से

जो घर में है या जो बाहर बैठा खुले आसमान में,
जो सफर में है या जो काम कर रहा बाहर में,
जो छुप रहा सभी से या जो दिख रहा बाजार में,
आखिर कौन यहां बचा है,काल के उस जाल से....

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फासले बस इतने थे कि दूरी थी ही नहीं,
धड़का जो दिल मेरा धड़कन में बस गूंज उसकी थी....

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है जब वक्त हमारे दरमियान,
फासले हम बना लेते है,
आती है जब सांसें आखिरी,
तो फिर क्यों हम आंसु बहा देते है....

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18 सालों का इंतजार कुछ ऐसा रहा,
की जब आई मंजिल सामने
तो आंखों में नमी, और चेहरा मुस्कुराता मिला .....

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शायद जैसा दिख रहा,
वैसा कुछ हो ही ना,
शायद मैं जैसा सोच रहा,
उससे भी अच्छा कुछ हो,
शायद मैं अटका हूं शायद में,
शायद कभी ये शायद ही न हो....

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एक पन्ने में उसका नाम लिख,
अपना नाम उसमें जोड़ दिया,
वो बच्चा बड़ा नादान था,
जिसने प्रेम को अमर कर,
कागज के पन्नों में उसे छोड़ दिया.....

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मुसाफिर हैं हम तुम,
जाना एक ही मंजिल को है,
बस सफर सबका अपना है,
दिन लिखें पहले से है,
माना मैं थोड़ा उलझा हूं,
पर सुलझा यहां क्या कोई है,
है जीवन का किस्सा सबका अलग,
पर आखिर मुसाफिर सभी तो है.....

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बस मंजिल इतनी ही करीब लगती है,
पर होती चांद की तरह ही दूर है...

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गिरगिट रंग बदलता है,
इंसान अपना ढंग बदलता है,
है बदनाम सिर्फ गिरगिट,
पर इंसान गिरगिट से कम नहीं है,
बस बात इतनी होती है,
की इंसान खुद की कमी नहीं देखता,
थोप देता है पूरा इल्जाम गिरगिट पर,
पर क्या इंसान खुद को कभी नहीं देखता???

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शायद रुका होगा कोई,
आपको देखकर,
पर आप रुकना सिर्फ
अपनी मंजिल पाकर ...

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