मन का मुसाफ़िर   (Sumit Verma)
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Joined 27 October 2019


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कुछ शांत सा है मौसम,
लग रहा कुछ होने को है,
कल गिरी थी बारिश,
आज की खामोशी की वजह कुछ है,
सोच में पड़े है सब,
मौसम इतना खफा क्यों है?
कुछ शांत सा है मौसम,
लग रहा कुछ होने को है,

शायद बदलने वाला है मौसम,
या बदलने की वजह कुछ है,
कोई समझ नहीं पा रहा,
या समझने की राह रूष्ट है,
कुछ शांत सा है मौसम,
लग रहा कुछ होने को है....

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वास्तविकता से दूर,
ख्वाबों की उस दुनिया में,
हम भी एक ख्वाब देख रहे,
जो वास्तविक है ही नहीं,
पर मन है हमारा चंचल सा,
वो हर पल इधर उधर घूम रहा,
देख रहा हर एक पल एक नया ख्वाब,
वास्तविकता से दूर जिंदगी वो जी रहा....

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ढलती शाम, अपने नाम कर जाते है,
जो रहते है अकेले,
वो अक्सर खुद से ही बात कर जाते है,
कोई न रहता है साथ उनके,
फिर भी वे खुश नजर आते है,
अकेले सीख चुके होते है जीना,
शायद इसलिए वो अकेले ही रह जाते है...

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कांटों से भरे जीवन में गुलाब से होते है,
मेरे मित्र आखिर लाज़वाब ही होते है....

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माना बहुत बुरा हूं मैं,
पर जो भी बोलो
यार बस तुम्हारा हूं मैं,
माना हमारी दोस्ती में
अब पहले जैसे बात नहीं होती,
मुलाकात की सोच रखते है,
पर कभी मुलाकात भी नहीं होती,
शायद अभी वो वक्त नहीं,
जो कभी हमारा हुआ करता था,
रहते थे साथ,
मिलने का बहाना हुआ करता था,
शायद अब वो वक्त लौट कर आएगा नहीं,
पीछे जो छूटा वो लम्हा याद बन जाएगा,
अब नादानियां नहीं दिखेगी हममें,
शायद यह जीवन यूं ही गुजर जाएगा....

Happy friendship day dosto...

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अगर विज्ञान नहीं हो,
तो आविष्कार कैसे होगा?
जिसे लोग कहते है चमत्कार,
वो चमत्कार कैसे होगा?
कैसे पता चलेगा,
सूक्ष्म जीवों के बारे में?
जीवन के प्रारंभ का
ज्ञान कैसे होगा?
यंत्रों की समझ कैसे होगी?
साधनों का विकास कैसे होगा?
कैसे बनेगी दवाइयां?
बौद्धिक विकास कैसे होगा?
जब घिरे है हम चारों ओर विज्ञान से,
तो क्या विज्ञान के बिना
जीवन की कल्पना का कोई औचित्य होगा?

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मैं तो हूं विनाशी इंसान,
मेरा कर्म ही है मेरा पहचान,
कल की मुझे खबर नहीं,
मैं हूं कल से भी अनजान,
मैं तो हूं विनाशी इंसान,

मैं में मेरा कुछ नहीं,
उड़ता फिरता मेरा मन महान,
क्या क्या सोचता है,
न जाने है कितना नादान,
मैं तो हूं विनाशी इंसान,

किसी से कुछ सीख रहा,
किसी को कुछ सीखा रहा,
इसी में बसी है जीवन की
एक सुंदर मधुर मुस्कान,
मैं तो हूं विनाशी इंसान.....

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है धूप खिला
या मिली है ठंड को सजा,
ये देख पुष्प ने मुस्कुरा दिया,
हवा का रुख बदलने लगा,
बादलों को कुछ तो हुआ,
दौड़ कर वो भागने लगा,
ये देख मैं सोच में पड़ा,
आखिर यह सब क्या हुआ?
है धूप खिला....

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ग़म छुपा रखा है,
यादों की दहलीज पर,
अब खुशी की ख्वाहिश रही जो नहीं,
कोई कैद रह गया यादों में,
और ये याद कभी गई ही नहीं....

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मेरा वहम मुझसे कह रहा,
मैं हूं मैं इसे और क्या गिला,
पर मैं ये बात जान रहा,
ये शरीर भी है दो पल का मेहमान,
कल मिला था किसी से,
कल किसी और से मिलेगा,
आने जाने का सिलसिला,
न जाने कब तक चलेगा,
ये सफर है जो चल रहा,
मैं हूं क्या ये मैं समझ रहा,
मेरा वहम मुझसे कह रहा...

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