असंख्य तारों के बीच
संसार चंन्द्रमा को निहारती है
वैसे ही असंख्य लोगों के
बीच मुझे केवल तुम नज़र आए
अंतर्मन पर जमी झील
रात्रि के तीसरे पहर पिघलती है।
मन के रेडियो पर ग़ज़ल बजते हैं।
संगीत, प्रेमियों के सिरहाने सोती है।
दुःख की सारी गठ्ठरीयाँ
तुम्हारे नाम से ही सिमटती है।
एक दूसरे की हथेलियांँ जोड़े
आसमां को नीला से गुलाबी देखना चाहते हैं।
कैसे और कितने रंगों में पैर पसारता है प्रेम
हम बस आँखे मिचे उसके हो जाते हैं।
-
🎂18 Aug -🎉🎁
'प्रिय वाणी'
.
.🙏जोहार🙏
.
तनिक धीरे,💖
आहिस्ता से,💖
धीमी आँच ... read more
ये जीवन हमारे सपनों से भरा
संमदर है
हम अपने प्रिय स्वप्न के मोती ढूंढने
जाते हैं
और सच के थपेड़ो से चोटिल हो
ईश्वर को पुकारते हैं
ईश्वर हमें असहाय देख कहता है
समंदर में डूबकर प्यास नहीं बुझती
सपने,
जीवन के सतह पर मिलेंगे
संघर्ष से गले के घूंट उतरेंगे।
-
मनुष्य के सारे अधूरे स्वप्न
इसी संसार में विचरते हैं
और आसमां के कुछ दु:ख बादल
और कुछ बारिश बन बरसते हैं
मैंने कई बार छुपकर देखा है
अश्रुओं को सिसकियों से बात करते
मन खाली होने से दुःख नहीं भरते
कुछ घाव को हरा और आत्मा को नीला कर जाते हैं।
-
सुख दुःख मन के रश्मि रात,
संध्या कनक संगीत सुनाती हैं।
जीवन पथिक,उर राह अगम्य,
स्वप्न से पलकें भिगोती हैं।..
(अनुशीर्षक में पढ़ें। )-
अंततः मैं समझ गई
प्रेम आपको भरता नहीं
वरन् हृदय को खाली करता है
ताकि बाद में भरा जा सके
उलाहने
मौन
स्मृतियाँ
दुःख
और ईश्वर की पुकार।
-
एक तिहाई सच और बाकी झूठ
जीवन की आँच पर ताउम्र पकते हैं
एक टुकड़ा धुप और कटोरी भर चाँदनी
जीवन की रौशनी के लिए पर्याप्त है..
(अनुशीर्षक में..)
-
जड़वत हुई मान्यताएँ औरतों
की गुनहगार रहीं
अभागिनों के स्वप्न का अधिकार
पैबंद लपेटकर कालकोठरी में फेंकी गई
कालकोठरी के काले नियम से बंधी औरतें
रात्रि के स्वप्न से भी डरने लगी
तब, किसी ने रात में चमकती जुगनूओं को
ईश्वर का रात्रि दूत बताया
और कहा
इसने कभी किसी के
स्वप्नों को अंधकार में डूबने नहीं दिया
रातरानी की खुशबू में सभी अधजगे स्वप्नों को
नवीन जीवन देने की क्षमता होती है
अंधकार कभी भी केवल निराशा और हताशा
साथ नहीं लाता,
रात्रि लाती है कभी ,चाँदनी पूर्णिमा की
जिसकी रौशनी में पुरा अम्बर
अपने आँचल में तारे टाँकता है।
बस प्रतिक्षारत रहो, अपनी जीवन के पूर्णिमा का
और बनाएँ रखो अपने अम्बर जितने हौंसले को अडिग।
-
चिंता आत्मा की तलहटी से रिस कर
मस्तिष्क की शिराओं के रुप में उभरती है
ये उम्र का पड़ाव लांघना नहीं जानती
न जानती है, उम्र का गणित,
बचपन में मिली चिंता और जिम्मेदारी
की लकीरें आत्मा की मासुमियत छीनती है,
बचा लो बच्चों को
इससे पहले बचपन उम्रदराज़ हो जाए।
-
वह धरा धन्य, वह नगर धन्य
जहां जाकर सब संताप मिटे
वह हृदय धन्य, हो जीव धन्य
जिस कण, मुख ने श्रीराम कहें
(अनुशीर्षक में...)
-
अंधकारमय जीवन में
वो तारें तोड़ता रहा
जीवन की आँच पर
विश्वास सेंकता रहा
वो कहाँ बातों की
पेंचीदगी मानता था
चेहरा नहीं वरन्
आत्मा पढ़ने में म़ाहिर था
ईश्वर रूंधे गले से पुकारना नहीं जानता
वो चाहता था आत्मा के मौन का भी विशेषज्ञ हो
इसमें मित्र से बड़ा ज्ञानी कौन होगा।
-