"मन के लड़ाई का कोई अंत नहीं"
मैं निहत्था मैदान में खड़ा हूँ, मुझे हथियार का ज्ञान दो ईश्वर
मैं अपने आप से सौ बार लड़ा हूँ, मुझे एक पहचान दो ईश्वर
मैं सोच से आगे बढ़ सकूँ, मैं अपने बलबूते कुछ कर सकूँ,
भर दो इतनी ताक़त मुझमें, बेशक चुनौतियों से लड़ सकूँ।
मैं रुका नहीं हूँ पर आगे बढ़ने से थोड़ा डरता हूँ,
मैं थका नहीं हूँ पर अपने शरीर का फिक्र करता हूँ,
क्योंकि निःशब्द हूँ अपने ही सवालात पर आख़िर,
ये लड़ाई किसकी है और कौन है इसका विजेता?
मैं जानता हूँ मैं बदल जाऊँगा, समय रहते सम्भल जाऊँगा,
पर क्या तब भी ख़त्म होगा मन के भीतर चलता द्वंद्व,
व्यव्स्था में निहित होने फिर से मशक़्क़त होगी,
और अंत में रह जाएगा सिर्फ़ खालीपन।
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