मिस डोलिवर्स   (जंगली गुलाब)
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Joined 2 April 2020


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क्या वे
समस्त जन,
दंड के पात्र हैं ??
जो अपनी ही
अभिव्यक्ति शैली के प्रति
भ्रम ग्रसित हैं !!
नहीं..... नहीं
अभिव्यक्ति शैली सदा
सहजता प्रदान करती है।
और सहजता.....सहजता
दंड का प्रावधान कदापि न रखतीं।

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स्वयं से कहा था मैंने :-
(अनुशीर्षक)

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ठहरो न तुम अब
मेरी विक्षिप्तता के निकट
मुझे.....मुझे तुम
मुझसे अधिक विक्षिप्त होते हो प्रतीत!
क्यों,कैसे यह कथन उड़ गया बिन पंखों के अब।
करो ऐसे बोध:-
मुख्यमार्ग पर बिछा यह कोलतारी प्रश्न
पदचिह्नों की भीड़-भाड़ में धंस गया यह अनस्तित्व।
हां.....तो तुम विक्षिप्त हो मुझसे अधिक
नि:संदेह
असंख्य अनुभूतियां बन बौराई कुतिया
नोच-खसोटती हैं तुम्हारी प्रस्तर-सतह सी चैतन्यता।

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अंधेरों के घुंघरू बांध
नृत्य करती है देह तुम्हारी।

चांद-तारे, जुगनू-झींगुर
कह रहें कर-कर जुगाली:-
साश्रुनयन लिए चमकती
स्वर्णिम आभा लिए दमकती
प्रेमिल आवेशालिंगन में लिपटी
है कौन ?
यह श्वेत वर्ण योगिनी !!

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मृतप्राय रहस्य
ड्राअर से निकल
करने लगा
छान-बीन ऑक्सीजन।
ऑक्सीजन का सिलेंडर,
संयुक्त परिवार का था केंद्र।
केंद्र के संदेहास्पद रहते-रहते
परिवार की संयुक्त टहनियां,
शनै: शनै: हो रही थीं विकलांग।
विकलांगता प्रतीक है:-
अनिवार्य अब आत्मीयता न रही।
सुप्त नाड़ी लिए मृतप्राय रहस्य,
ऑक्सीजन का सिलेंडर न खोजें।
मृतप्राय हो अब अमर्त्य,
ऑक्सीजन को ड्राअर में कैद करे।

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कैलाश शिखरस्थ पर संवाद!
(अनुशीर्षक)

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प्रेम में
करूणा में
सहज जीवन दिखाती रहतीं।

सृष्टि के चराचर सौन्दर्य का,
स्वाभाविक अर्थ बोध कराती।

क्षणकालिक जीवन को
अज्ञात महाकाव्य सुनाती रहतीं।

विचार ज्यों-ज्यों पनपते हैं
त्यों-त्यों अनभिज्ञ बन तुम्हें खोजती हूं
तिमिर ढलेगा कैसे उस सजीव के जीवन का‌
सृष्टि में जिनकी भेंट तुम्हारी प्रकृति से हुईं ही नहीं !!

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तुम देव हो
या हो पाषाण कोई
चूंकि
मेरी मति भ्रष्ट है
मैं यह
निर्णय समझने में सक्षम नहीं हूं।
मैं तो पाषाण रूपी देव को खंडित कर चूर्ण बना
अंग-प्रत्यंगो में मर्दन कर रही हूं।
उड़े धज्जियां
मिले राजदंड
पाषाण रूपी देव
या
मति भ्रष्ट कुटिल बुद्धि को।
मैं इस
निर्णायक कृत्रिमता में नहीं पडूंगी।
बन रक्तिम वेदी प्रलय-क्रीड़ा में विलीन हूं मैं।
पाषाणी देव संग नित्य-प्रति,
मरण-पर्व मनाती हूं अब मैं।

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कभी-कभी
यह ठसाठस सृष्टि
मुझे निर्जन,कोरी सी लगती।
धरा भी न दीख पड़ती,
न वायुमंडलीय अम्बर ही होता।
एक मैं पहिलौठी होती,
एक उपस्थित धुंध होती।
उस विद्यमान धुंध पर,
मैं सृष्टि की सिहरी छायाएं उकेरती।
जिनकी जिजीविषा,
दिन-दोपहरी से सदा भयभीत रहतीं।

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मुहब्बत करने का सलीक़ा
तुम्हें आया न ग़ालिब

अगड़म-बगड़म बड़बड़ा
दग़ाबाज़ी
किस कॉटेज छोड़ आए
मियां तुम !!

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