mihir joshi   (मिहिर मेघ)
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Joined 21 April 2018


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16 APR 2023 AT 0:01

क्या नफ़ा क्या नुकसान ढूंढते हो,
सिक्कों से हर दम सुकूँ मांगते हो,
क्या खास किया तुमने,
पत्थरों की दीवार बना कर,
खुद में ही खुद को कैद कर,
अब आराम ढूंढते हो|

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5 APR 2022 AT 15:19

इंसान खुद की इबादत चाहता है,
खुदा भी देखकर है हैरान, ये आखिर क्या चाहता है,
धूप में छांव और ठंड में तपिश चाहता है।
वो वो चाहता है जो दूसरे पर है,
उसे अहमीयत भी चाहिए, ज़ियाफत भी,
वो सादगी से डरता है, शान से चलता है,
वो दगा देता है, पर विश्वास चाहता है।
उसे ख़ुशामत मंज़ूर है, खिलाफत नही,
वो अपने लिये जीकर, सबसे तारीफ़ चाहता है।
खुद को हार गया रोज़ गिर गिर कर,
फिर भी वो खुदा बनना चाहता है।




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19 JAN 2022 AT 16:22

धूप में चलकर,
रोटी कमाने निकले,
फिर किसी बहाने से,
देखा अपना चेहरा,
की यही हूँ मैं,
जो कुछ साल पहले भी था,
क्या बदला है, क्या बदल जायेगा,
हौंसला है, हौंसला था,
फिर भी खोज है,
धूप में चलकर, ख़ुद का कमाना,
थककर फिर किसी बहाने से,
कुछ समय निकाला,
पीछे देखा लम्बा रास्ता,
और जो छोड़ दिये,
कुछ बन्द दरवाज़े,
अब आगे की ओर,
लम्बा रास्ता, बनते दरवाज़े।

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26 JUL 2021 AT 20:28

तो मिटा देता कई रास्ते,तय किये जो फ़िज़ूल में,
बता देता कुछ जवाब,जो कभी थे सवाल ,
सुबह होने देता,जो अंधेरे में था नही मुमकिन,
बढ़ा लेता कुछ कदम और,जो बढ़े नही,
मुड़कर देख लेता थोड़ा, चलो फिर कभी।

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23 JUL 2021 AT 23:46

ये सितारों से दूरी,खास है
पास होने पर तवज़्ज़ो कम मिलती है।

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17 JUL 2021 AT 18:15

कौन कहता है ये बादल बरस नही रहे,
सूख गए हैं ये धरती पर जनाजे देखते देखते।

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8 JUL 2021 AT 22:49

शाम को याद आयीं फिर कुछ पुरानी बातें,
मुसाफ़िर तुम किस किस से मिले,
मुग़ालते किस से कम हुईं,
किस्से जो कहानी बन गए,
किताबें जो खरीदी पर पढ़ी नही,
कोरा कागज़ ,और क़लम जो चलाई नही,
रुबरु तो हुए कई पर कौन दिल को छू गए,
कुछ मुक़ाम छूट गए, सफर कुछ हुए नही,
शाम को याद आयीं फिर कुछ पुरानी बातें,
मुसाफ़िर बढ़ चलो, एक नई सुबह के नज़राने को।

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27 JUN 2021 AT 17:54

धीमे धीमे ही सही,
बदल रहे हैं दस्तूर यहां,
ढल रही हैं ज़िन्दगी,
धीमे धीमे चाय की चुस्कियां भी,
कम हो रही हैं,
किस्से आस पड़ोस के,
सुनाई भी कम दे रहे हैं,
दिलचस्पी दिख रही है,
खिड़कियों से जीने में,
दरवाजे पर डिलवरी में,
कौन आया है,
दांव पर रख कर ज़िन्दगी,
मेरी एक ख्वाहिश को पूरी करने,
सिराज शाम का देख कर,
डूब रही है हस्तियाँ यहाँ,
धीमे धीमे ही सही,
बदल रही है ज़िन्दगी यहां।




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22 MAR 2021 AT 8:32

ये रातों की फिकर,
यूहीं टूट जाने वाली नींद,
काम करते करते मशगूल अपनी धुन में,
यार, या तो इश्क़ है या अपने तज़ुर्बे से तकल्लुफ़।

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14 JAN 2021 AT 13:29

कड़वा पीकर कड़वा सुनकर,
कड़वे की चाशनी में भिगोकर,
क्या मीठे से टकरायेगा,
हाड़ मांस के पुतले ,
क्या रक्त विहीन हो जाएगा,
प्रतिभा का घमंड,
क्या वात्सलयता को पी जाएगा,
होश के घूंट पी पीकर,
तर्क वितर्क में रह जायेगा,
ये प्रेम नही अराजकता है,
सम्बन्ध ही तो बस रह जायेगा,
फिर बूझेगा पुराने पलों को,
जब खामोशी की तस्वीर बन जायेगा।

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