वो आँखे , वो चेहरा, वो मासूम सी हँसी,
कोई कैसे भूल सकता है वो सर्द होंठो की नमी!
मुकम्मल ना हुआ तो ना ही सही,
लेकिन एकबारी इश्क़ हमने भी किया था कभी!!!-
Storyteller
वैसे तो मैं कोई सुखन-वर नहीं, पर लिखने का जज़्बा रखती ह... read more
केशव! यह मन व्याकुल क्यूँ?
निजकुल रक्त को आकुल क्यूँ?
विश्व शोभती धरती यह
आज याचती विग्रह, क्यूँ?
केशव! यह मन व्याकुल क्यूँ?
भ्रमित चित्त का दर्प तो देखो
करे घर को ही खाली क्यूँ?
बना निरंकुश खल रजनीचर
लगा न्याय पर अंकुश, क्यूँ?
केशव! यह मन व्याकुल क्यूँ?
मायाधारी सृष्टि नचाते
आज बने हठधारी क्यूँ?
धर्म के द्योतक, चक्रपाणि
आज सभा में मौन हैं, क्यूँ?
केशव! यह मन व्याकुल क्यूँ?-
आह! निकली होगी उर से
जब तुमने उन्हें ठुकराया होगा!
चंद नए रिश्तों की खातिर
बेहद उन्हें रुलाया होगा!
माना याद ना हो तुमको
पर तुम घर के उजियारे थे!
उन बूढ़ी आँखों के लिये
बस तुम्हीं चाँद-सितारे थे!
वारे उन्होंने तुमपर
अपने ख़्वाब वो सारे थे!
पैसों से क्या तोल सकोगे?
जिनके तुम प्राण पियारे थे..
बेचे माँ ने झुमके थे
किया बाप ने अखट श्रम,
मिलके दोनों ने तुमपर
किया न्योछावर जीवन तब!
पर तुम?
है नहीं शिकायत तुमसे मुझको
बस देख तुम्हे हिय कुढ़ता है..
हाय! निरा जड़ बंचक तू
कैसे जीवित फिरता है!!!!!-
है दिवास्वप्न का प्रेमी मन
बुनता खुदमें ताने-बाने
कभी रोचक कभी मनमाने
विकट महत्वकांक्षी यह
कुशाग्र बुद्धि का धर्ता है
उलझ जाती गाँठ जो खुदमें
धर उधेड़ फिर बुनता है!
स्वर्ण सजीले सुंदर मोती
चुन-चुन ये पिरोता है
कस्तूरी मृग समान यह
अरण्य भर में फिरता है!
नवयुग का मानव देखो
सिर्फ दिवास्वप्न ही बुनता है!!!-
जो मैं उद्धरण पर ज़ोर दूँ
वह संयोजक बन जाती है।
मैं उपविराम का सोचूँ तो
वह अर्धविराम पर अटकती है।
मैं बात करूँ जब लाघव की
वह लोप चिन्ह समझती है।
होती बात जब विवरण की
वह त्रुटिबोधक बन जाती है।
मेरे प्रश्नवाचक चेहरे पर, वह
विस्मयसूचक लगा जाती है!
जो अल्पविराम की सोचूँ मैं
वह पूर्णविराम बन जाती है।
ऐसी है मेरी चंद्रकला!
अनभिज्ञ मेरे प्रेम से,
मैं पूछता मिलन हूँ,
वह व्याकरण बतलाती है।।-