खिड़की खोली, खुली रह गई, बंद नहीं कर पायी।
मनमोहक था दृश्य सामने, पलक नहीं झपकायी।।
वृक्षराज की एक डाल पर, थी कोयलिया गाती।
पंचम स्वर में कूक-कूककर, थी वह हृदय लुभाती।।
उसने खिड़की बंद नहीं की, लगी स्वयं भी गाने।
किसी अन्य को नहीं, स्वयं को, अपना गीत सुनाने।।
मंत्रमुग्ध हो गयी स्वयं पर, इतना मीठा गाया।
हर छिपकर सुनने वाले का, उसने हृदय चुराया।।
आओ बंद न करें खिड़कियां, दिल की खिड़की खोलें।
ऋतुपति के स्वागत में गाकर, आत्ममुग्ध हम हो लें ।।— % &-
मेरी इसी जन्म में उनसे
मिलने की अभिलाष ...
मेरी भूख-प्यास है उनसे
उनसे मुझको आस.....
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शान बढ़े फुरकान अली की, रब से यही मनाता-
उनके सत्साहित्य सृजन से, विहँसे भारतमाता ।-
जिसे मुहब्बत करना आता
जो अपनों को भुला न पाता
वह यशवंत यशस्वी हो, बस
गीत यही मेरा दिल गाता-
यशवंत ! यशस्वी बनें आप
जो चाह रहे वह पाएँ
पाने से ज्यादा अपनापन
अपनों पर आप लुटाएँ
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भारत के तीन ओर सागर
सागर कहलाता रत्नाकर
सागर से समुद्भूत लहरें
नर्तन करती हैं इठलाकर
हर लहर लहर कहलाती है
आकर तट से टकराती है
जिसमें जितना उद्दाम वेग
वह उतना शोर मचाती है
कुछ दर्शन कर सुख पाते हैं
कुछ स्वयं लहर बन जाते हैं
कुछ तट पर खड़े खड़े केवल
लहरें गिन मोद मनाते हैं
जल और लहर में कुछ अंतर
मानते नहीं हैं विद्वत्वर
जल में ही लहर लहर में जल
अन्योन्याश्रित लगते मनहर-
तुमने अपनी हार न मानी
मैं भी अड़ा रहा
तुम न बैठ पायी, इस कारण
मैं भी खड़ा रहा
कौन फैसला कर पाता फिर
हमको समझाता
हो न सका फैसला अभी तक
सब जग भरमाता-
जो प्रतिकूल परिस्थिति में भी रखते हैं विवेक को जाग्रत
महक जिन्दगी के गुलाब की करती हरदम उनका स्वागत
उनके जीवन दीप न बुझते झंझाओं—तूफानों में भी
सदा स्रवण-रन्ध्रों में उनके गूंजा करती ध्वनि दूरागत ।👏-
निष्काम कर्म जिसका स्वभाव, जो शुभ संकल्पों का स्वामी
उससे बढ़कर कोई न अन्य, हम बनें उसी के अनुगामी
जो देता सबको अभयदान, जो हरदम निर्भय रहता है
उसके संग विचरण करता है रहकर अदृश्य अन्तर्यामी ।-