महेन्द्र मनोमंथन  
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Joined 1 April 2018


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खबरें जब भी चलती हैं
तुम हौले' सी शर्माती हो
फिर मिलन के समय ही
मुझे तुम क्यों भगाती हो!

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वो ना रही मुलाकात है!
हो गये फोन से स्मार्ट है!
वक़्त- वक़्त की बात है!

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सीधी सादी सी स्त्री ,
दाढ़ी-मूंछ को सँवारा हुआ देख कर
भी सम्मोहित हो जाती है ।

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मन को लगाया अध्यात्म की और
जीवन का थोड़ा किया 'मनोमंथन'

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अल्फ़ाजो से हो गये हो सरशार !
जब रूबरू होंगे क्या होगा यार !!

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चाँद की चाँदनी से, चमक जाता चमन है!
मन को मंथन करने पर, भावो का बनता मनोमंथन है।

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'कई' तो 'पढ़ती' होगी 'शब्दों' के 'अर्थ'
कई तो 'पढ़ी' होगी 'उसमे' मर्म 'मेरा'

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निगाहों को निगाहों से,
मिलाते तो अच्छा था!!

वो डायरी मे छिपे राज
लिखते तो अच्छा था,;

मन के सच झूठ को,
पढ़ते तो अच्छा था।।

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थोड़ी बहुत फ़रमाइश से कलम ने लाजवाब लिखा
इसी बहाने मोहतरमा का शायराना अंदाज ही देखा

शब्दो मे झलक रही मोहब्बत व इश्क़ की बरसातें
ऐसा कुछ मोहतरमा का शायराना अंदाज ही देखा

हाय! लाली, बाली, काँजल से दिल मचलना सीखा
यूँ ही नहीं मोहतरमा का शायराना अंदाज ही देखा

फिर अल्फाज़ो का शर्म, हया छोड़ बहकना दिखा
मुझे तो मोहतरमा का शायराना अंदाज ही देखा

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यूँ आजकल बनते हो बहाने
कहो ने बस में नहीं धड़कने
दीदार बाद अब कैसे संभले
उनके तो वाह क्या ही कहने

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