साल की आखरी विदाई
ज़िंदगी की किताबों में एक पन्ना और जुड़ने को हैं
ज़ेहन में बुरे यादों को भर कर ये साल बीतने को हैं
एक आंधी की तरह आकर सब कुछ तबाह कर गयीं
पर जाते जाते भी ये साल बहुत कुछ सीखला गयीं
आँखों से भ्रमजाल की पट्टी खिसका कर नया नज़रिया बना गयीं
अपने और अपनापन की दूरी बता कर सीने में एक दर्द छुपा गयीं
जाते जाते इंसान और इंसानियत के बदलते रंगो को बखूबी समझा गयीं
कुछ खुशियां देकर बहुत कुछ छीन पूरे साल बस रुलातीं गयीं...........
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बड़ी लेखिका तो नहीं हूँ पर कलम से रिश्ता ... read more
~ 2021 ~
अब बस शिकवे शिकायतों में अक्सर तेरी बातें होगी
पर जीतना सिखाया उसकी काबिल -ऐ- तारीफ़ होगी
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सिर्फ बोलने से बात बन जाती तों प्यार के तीन शब्द ही काफी होते,
पर जो एहसास बन कर दिल में उतर आयें वो बात ही काफी हैं!!-
खून खून नहीं पानी हैं,ये तों आरंभ हैं कल्युग अभी बाकी है
वेदना अभी बहुत कम है,विकट संकट अभी बाकी है
कोई साथी कोई रियाति नहीं,इस दुनिया की पशुता अभी बाकी है
सोच नयी मगर लालच वहीं पुरानी हैं,किसे कहूँ हर घर यहीं कहानी हैं
रोने को तों लाखों आँखें हैं,फ़रियाद अभी भी बाकी है
धर्म यहां झुका हुआ है,पाप का पलड़ा अभी भारी हैं
खून खून नहीं पानी हैं,ये तों आरंभ हैं कल्युग अभी बाकी है
अपनो की लड़ाई बहुत देखि,गैरो में भी अपनी हिस्सेदारी हैं
जात पात तों छूट रही हैं, पर व्यभिचार अभी भी बाकी हैं
दया प्यार भाव की कद्र नहीं,नोट पे चोट की भरमारी हैं
ईमानदारी यहां मर रही हैं,बेईमानी की चरम अभी बाकी हैं
अपना धन गड़ा हुआ हैं,दूसरों की धन बहुत प्यारी हैं
खून खून नहीं पानी हैं, ये तो आरंभ हैं कल्युग अभी बाकी हैं-
' पशुबुद्धिमिमां जहि ' --- यानी इस पशु बुद्धि को छोड़ दो की ये मेरा वो मेरा हैं,ये घर मेरा हैं, ये ज़मीन मेरा हैं,
पर वास्तव में आपके साथ रह रहे चींटियाँ, चूहे, मक्खियाँ आदी ये सभी इन्हें अपना घर मानती हैं
असल में असली मानव कर्म यहीं हैं सबके हित में अपना हित हैं!
अहंता करना मानवी बुद्धि नहीं हैं हम जिस शरीर को अपना कहते हैं वो भी अपना नहीं हैं जैसे किसी किराए के मकान में रहते हैं उसे एक समय के बाद छोड़ कर जाना होता हैं, इसी तरह भगवान ने हमें जो शरीर दी है उन्हें एक दिन हमें लौटना होता हैं क्योंकि हम दूसरे की दी हुई वस्तु को अपना तों नहीं कह सकते ना इसलिए हमें ये समझना चाहिए की ये शरीर जब अपना ना होकर किराए का हैं तों ये निर्जीव और भोग की वस्तु को मेरा तेरा करके मन को अहंकार से क्यों भरें !!-
ज़िंदगी की गुलाबी रंग भी देखा उम्र ढलते - ढलते
किताबों ने मेरे रूठें हुए मुरझाऐं फूलों को देखा सदियों से पन्नें पलटते - पलटते
इन आँखों ने सारे वसंत भी देखा साथ गुजरते - गुजरते
आंसू भी साथ में थी सावन के बरसते - बरसते
वर्षों बीत गयें किताब में फूलों को सूखते - सूखते
एक कसक रह गयीं तुम फिर से दिख जाओ इन आँखों को बंद करते करते-
दूसरों को गिराने वाले खुद की नज़रों में इतना मत गिर जाना की कभी उठ भी ना पाओ!!
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जीवन के इस पथ पर मेरे मार्ग दर्शक बनें
इन नन्हीं हाथों में कलम थमा कर मेरे प्रथम गुरु बनें
इन धुंध भरी शहर में मेरे प्रकाश बनें
कभी जो टूटी मैं आप सहारा बनें-
ज़िंदगी को मैंने सोते देखा हैं मैंने पापा को भी रोते देखा हैं
सब कुछ उनको सहते देखा हैं पर ऊपर से हँसते हुए देखा हैं
तपती धूप में खड़े होते हुए देखा हैं मैंने पापा को बूढ़े होते देखा हैं
हर पल हमारे लिए फिक्र होते हुए देखा हैं कभी खुद के लिए ना जिक्र करते देखा हैं
ज़िम्मेदारी के बोझ तलें दबते देखा हैं मैंने पापा को हमारे लिए रात भर जगते देखा हैं
बिना कहें हमारी ख्वाहिशें पुरी करते हुए देखा हैं मैंने पापा को तकलीफों से लड़ते हुए देखा हैं
दिल की गहराईयों से उन्हें बिखर कर संभालतें हुए देखा हैं मैंने पापा को हमेशा सर उठा कर चलते हुए देखा हैं
चोट लगती हमें दर्द में उनको देखा हैं मैंने पापा को भी रोते हुए देखा हैं
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मेरे बीना कुछ कहें सब पूरा कर देते थे इस बार क्या हुआ पापा
चोट लगी है बहुत,हर बार की तरह इस बार भी मलहम लगा जाओ ना पापा
गिर गयीं फिर से इस जमीं पे,मेरी हाथ थाम कर फिर से अपनी आसमां बना जाओ ना पापा
हौसला नहीं हैं अब उड़ने की,एक बार मेरी पंख बन जाओ ना पापा
अंधेरों ने घेर लिया हैं हमें एक बार फिर मेरी रोशनी बन जाओ ना पापा
आप मेरे शब्द नहीं शब्दकोश थें मेरे बीना कहें हर बात समझ जाते इस बार भी क्या हुआ पापा
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