वजह कुछ और थी, कुछ और ही बताते रहे।
अपने थे इसलिये, कुछ ज्यादा ही सताते रहे।-
मैं क्यो बदनाम करू इस पाक महोब्बत को......
महबूब तो हमारा ही बेवफाह था साहब,-
इश्क़ के चंद आख़िरी लफ़्ज कुछ इस तरह होते है,
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तुम्हे अच्छा साथी मिले और तुम हमेशा खुश रहो !!-
“अब ना मैं हूँ ना बाक़ी
हैं ज़माने मेरे,
फिर भी मशहूर हैं
शहरों में फ़साने मेरे...”
अलविदा,
राहत इंदौरी साहब।-
रिश्ता उस से इस कदर मेरा बढ़ने लगा...!!
मैं उसे लिखने लगी , और वो मुझे पढ़ने लगा...!!-
उनकी फ़ितरत है वो दर्द देने की रस्म अदा कर रहे हैं ,
हम भी उसूलों के पक्के हैं दर्द सहकर भी वफ़ा कर रहे हैं....-
तू कर मुझसे वादा आने का मेरी मौत पर!!!
फिर देख मेरी भी जिद तुझे आज ही ना बुला लू तो कहना!!!-
यही सबूत है मेरी शराफ़त का ग़ालिब,
के मेरे शहर में मुझे कोई जानता ही नही.-
तेरे इश्क़ में भी, ठंड जैसी मजबूरी है...!!
कितना भी बचूं, पर लगना जरूरी है...!!!!-
मुझे ख़ुद पर इतना तो यक़ीन है के रोयेगा
वो सख़्श मुझे वापस पाने के लिये !!-