कोशिश करती हूं जब भी तुम्हें लिखने की लब्ज़ छोटे पड़ जाते हैं,
लिखना चाहूं ख्वाइशे पर ख़्वाब छोटे पड़ जाते हैं,
किसी दिन मंजिल तो किसी दिन रास्ते छोटे पड़ जाते हैं,
शब्दों के सहारे अपना इंतजार लिख रही हूं,
ज़रा गौर से पढ़ना अपने लफ्जों में मैं तुम्हें लिख रही हूं।।
तुम अपने हो या पराए,
सुलझे हुए हो या उलझाए,
कभी कांच से चूबते हो,
कभी हर जख्म की मरहम बनते हो,
साथ निभाने को हाथ में हाथ रखते हो,
मेरे हर गम को अपना समझकर बांटते हो,
जो कल थे और जो आज हो हर वो क़िरदार लिख रही हूं,
ज़रा गौर से पढ़ना अपने लफ्जों में मैं तुम्हें लिख रही हूं।।
मिट्टी ना हूं मैं जो खिलौना बन जाऊं,
पत्थर भी ना हूं जो पिघल ही ना पाऊं ,
इतनी नाजुक भी मत समझना कि आज लिखूं और कल बिक जाऊं,
दुनियां के लिए ये बस लफ्ज़ है
पर तुम समझना मैं क्या अहसास लिख रही हूं,
ज़रा गौर से पढ़ना अपने लफ्जों में मैं तुम्हें लिख रही हूं।।
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