एक कहानी के किरदार की तरह
खुद को ही तलाशती हू
खुद की कहानी मे•••।-
कब तक जियुँ मैं ,
ज़िंदगी सौ लम्हाँ तो नहीं ...
एक पल में बिखर जायेगा...
ये आलम सारा,
ना याद आ मुझे...
ना तड़पा मुझे...
बस इतनी सी इल्तिज़ा है,
एक पल सुकुँ का दे,
रहम कर मुझपे...।-
ख्वाहिशों से शुरु..
हकीकत पर खत्म ,
मन की चार दीवारी में ,
घुटते जज्बात ..
कहाँ अपनी मंज़िल पाते हैं ?
मन की अनगिनत परतें ..
यूँ ही बेजान रह जाती हैं,
मुकम्मल होने की चाह में ..!!-
इल्ज़ाम लगने लगा है बेमानी मौसम पर ...
बेईमान सावन धड़कनों को फिर से तड़पाने लगा,
यादों की धुन में, हर बूँद आवारा होने लगी है..
नयनों का अश्क बनकर, फिर बरसने लगी है..!!-
निगाहों ने तेरी ,सादगी को मेरी गुमराह कर दिया..
इश्क़ की गलियों में बदनाम हो चले हैं हम ..!-
लम्हों का ज़खीरा बनके, ज़िंदगी भी ढल जाती है..
हर एक उस पल में, अलग किरदार निभाती है,
छोड़ जाती है कुछ निशाँ उस अनकही दास्ताँ के..
रुबरु होकर भी अनजान सी बन जाती है..!!
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भरी बरसात में जैसे ...
आँखें छलक जाती हैं ,
मिट्टी की सौंधी खुशबू जैसे...
मन को सुकुँ दे जाती हैं ,
तेरी याद यूँ आती है..
भरी धूप में जैसे..
छाँव की ठंडक दे जाती है,
दूर से आता जैसे डाकिया कोई..
खाली खत पढ़वा जाता है,
तेरी याद यूँ आती है...
दिल में हजारों एहसास ..
जगा जाती है...!!
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कहने को क्या बाकि रहा..
भीगी पलकें हैं दास्ताँ मेरी..!
वक़्त बेवक़्त की यादें भी..
बनने लगी हैं बेख्याली मेरी..!
चुपके से चुराई है मुस्कान अपनी..
बेवफ़ा होने लगी है, वफ़ाएं मेरी..!
खलिश रहने लगी है बेजुबाँ अब तो..
ज़िंदगी क्या सुलझाएगी, उलझनें मेरी..!-