सब कुछ है फिर भी है क्यों तिश्नगी?
ये दर्द की इन्तेहा होती क्यों कम नहीं?
जुस्तजू सितारे की थी जो मुख्तलिफ सा था,
लेकिन फलक पर बैठा वो अपने गुमान में गुम था।
शिद्दत से इबादत की, चाहत में यार की
लेकिन खुदा की बनाई शय था वो खुद खुदा नहीं।
वस्ल-ए-यार से अच्छा था मुन्तज़िर-ए-इश्क ही,
आया भी वो लम्हा तो फख्त मुख़्तसर सा था।
गर इख़्तियार में होता तो यूँ रंजिशें न होतीं,
लेकिन हर ख्वाब की जहाँ में ताबीर नहीं होती।
- Meenakshi Sethi #Wings of Poetry
26 SEP 2019 AT 4:28