अंतर्द्वंद्व जो मन में उठता है
उसका एक सिरा कहीं तो एक कहीं जा मिलता है
कभी धुँधला सा जाता है समझ का लिहाफ
कभी आईने सा साफ सबकुछ लगता है
ऐसा नहीं कि जीतने का गुण मुझे नहीं आता
फिर भी हर बार, हार ही मैं चुनती हूँ
जानती जो हूँ, जीतने की कीमत क्या है
इसलिए सपने भी सोच समझकर ही बुनती हूँ
कभी तो शांत होगी ये पीड़ा मन की
कभी तो अंतर्द्वंद्व की लहरों से मोती कोई निकलेगा
उस रोज शांत बैठकर यूँ ही किनारे पर
मैं भी गीत सुनूँगी समुद्र मंथन का
देव या दानव किसी की चाह नहीं
ना ही लालच किसी कलश अमृत का
बस देखना है इतने बड़े उस मंथन से
क्या निकल सकेगा हल लहरों की पीड़ा का?
या तड़पेंगी विरहा में यूँ ही युगों युगों
और चाँद नभ में यूँ ही स्वच्छन्द विचरेगा!
- Wings Of Poetry
31 AUG 2019 AT 6:11