तूने नफ़रत का जो बाज़ार सजाया हुआ है,
तू ये कहता है मुसलमान पराया हुआ है !
आ जा दिल चीर के दिखलाऊँ वतन का नक्शा,
मेरा भारत मेरी सॉंसों में समाया हुआ है !!
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मैं भी इस मुल्क़ का आम इंसान हु,
मुफ़लिसी और गरीबी से हैरान हूं,
मेरी मज़लूमियत ही खता है मेरी,
मेरी बस एक खता है मुसलमान हूँ,!-
ज़िन्दगी तुझसे मिलकर बिछड़ना भी खूब रहा
वो मुख़ालिफ़ है आज, अब तलक महबूब रहा,
हर लम्हा मेरी जीस्त का, वो अज़ाब बना गया
हर लम्हा मेरी जीस्त का, जिस से मनसूब रहा,
आता कहाँ कोई किसी का मुहाफ़िज़ बन कर
साहिल मुतमईन है, सफ़ीना दरिया में डूब रहा,
तबियत ही ठहरी कुछ ऐसी बंजारा सी अपनी
कल तन्हाई से ऊबा आज रुस्वाई से ऊब रहा ,
जर्रा जर्रा देंगी गवाही मेरी दीवानगी की तुमसे
खंडहरों से पूछो के किस कदर मैं मज्ज़ूब रहा,
हर सदा उसके लिए जिस परिंदे ने तन्हा छोड़ा
शजर की आशिक़ी का ये भी क्या उस्लूब रहा !!-
जिसके बिना तेरी ज़िन्दगी अधूरी हो,
मुझे ऐसी इक ग़ज़ल बनना है ,
पास रहते हुए न दूरी हो
रब्त को उन शिद्दतों में ढलना है!-
शाम की आख़िरी फ्लाइट से भी आ सकती हो,
तुम मेरे शहर से होकर भी तो जा सकती हो !
मैंने जिस जिसको भी चाहा है बहुत चाहा है,
तुम किसी एक से तस्दीक़ करा सकती हो !
कल मैं इक ख़्वाब किसी ऑंख में भूल आया था,
क्या तुम उस ख़्वाब का अंजाम बता सकती हो ||-
मैं चाहता हूँ तुम मुझे कभी ना मिलो,
मैं तरसता रहूं उम्र भर,
जैसे रेगिस्तान का बाशिंदा शिमला की ठंडी हवा को तरसे,
मैं चाहता हूँ तुम मुझे कभी ना मिलो,
जैसे चिड़िया किसान के डर से जल्दी-जल्दी दाने चोंच में भरे,
कि कुछ पता नहीं अगले पल दाना कब मिले,
मैं चाहता हूँ तुम मुझे कभी ना मिलो,
मैं तुम्हें इतनी शिद्दत से रोज़ इतना याद करूँ,
जैसे नमाज पढ़ते वक्त दुआएं नक्श होती है,
बिना सोचे बिना याद किए होठों से सरकती जाती है,
ठीक वैसे ही हां........ठीक वैसे ही,
मैं चाहता हूँ तुम मुझे कभी ना मिलो,
तुम्हें पा लेने का मतलब है आँखें मूंद लेना सब आसान हो जाना,
और आसान बातों की अहमियत बहुत कम होती है, है ना!
इसलिए,
मैं चाहता हूँ तुम मुझे कभी ना मिलो ॥-
शिकायत
अब जो बिछडे हैं, तो बिछडने की शिकायत कैसी,
मौत के दरिया में उतरे तो जीने की इजाजत कैसी,
जलाए हैं खुद ने दीप जो राह में तूफानों के,
तो मांगे फिर हवाओं से बचने की रियायत कैसी,
फैसले रहे फासलों के हम दोनों के गर,
तो इन्तकाम कैसा और दरमियां सियासत कैसी ।।
ना उतावले हो सुर्ख पत्ते टूटने को साख से,
तो क्या तूफान, फिर आंधियो की हिमाकत कैसी,
वीरां हुई कहानी जो सपनों की तेरी मेरी,
उजडी पड़ी है अब तलक जर्जर इमारत जैसी ।।
अब जो बिछडे हैं, तो बिछडने की शिकायत कैसी
मौत के दरिया में उतरे तो जीने की इजाजत कैसी!!-
तेरी बे-वफाई के बाद भी मेरे दिल का प्यार नहीं गया
शब-ए-इंतिजार गुज़र गई ग़म-ए-इंतिज़ार नहीं गया,
मैं समंदरों का नसीब था मेरा डूबना भी अजीब था
मेरे दिल ने मुझ से बहुत कहा में उतर के पार नहीं गया!!-
घूम रहा था एक शख़्स रात के ख़ारज़ार में
उस का लहू भी मर गया सुब्ह के इंतिज़ार में!!-