मैं अगर कहूँ के इश्क़ में इश्क़ की जितनी भी ज़बाने है ,
तुम्हारी ज़बान अन तमाम ज़बानों में सब से आला है,
तुम बातें करती हुई जब अपनी खूबसूरत सुर्ख़ होंठो पर हया की तबस्सुम लाती हो उस दिलकशी को देख कर मैं अपने होश खो बैठता हूँ ,
तब ये मंज़र जो दुनिया के ये तमाम नज़ारे है इन नज़रों के अपने अपने जो इशारे है, ये अपने इशारे, अपनी अदाओं को भूल कर तुम्हारी आदाओं में सिमटते चले जाते है ।
और इनकी अपनी जो असल रंग-ओ-रूप है जिसे जाने कब से , सब से , पोशीदा रखे हुए होते है और फ़िर किसी आशिक़ कि माननिंद अपनी असल शक्ल में आ कर दीवाने की तरह तेरे इश्क़ में खो कर रक्स करते है
मेरा जी चाहता है आज इस बात पर झगड़ लू चाँद और सितारों से ये अपने रंग बदल कर तुम्हारे ख़ातिर दिन में रात की ज़िम्मेदारी की तरह फलक मे निकल कर क्यूं नही टिमटिमाते है , आज मुलाकात करूँगा
बागों के सभी फूलों से और मुलाक़ात मुख़्तसर नही बल्कि तवील करूँगा ,
और पूछुंगा उन सभी से तुम्हें कितनी उज्रत चाहिए सिर्फ और सिर्फ उस एक महजबीन कि ख़ातिर अपनी महक बिखेरने को ।
चोटियों से गिरने वाली आबशारों से कहूंगा तुम्हें सिर्फ एक रुक्मणि के लिए ऊँची ऊँची चोटियों से नज़ाकत के गिरना है बलखाते हुए गिरना है ,इठलाते हुए गिरना है , मचलते हुए गिरना है शाम-ओ-सहर गिरना है, ना थमने वाली हद-ओ-फितरत के साथ गिरना है मुसलसल गिरते रहना है।
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