Mayassar   (मयस्सर)
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Joined 23 August 2017


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18 JUN AT 12:05

और जब ख़ाक हो जाएंगे मजहब सारे किसी एक तबाही में
तब भी बची रह जाएगी इस ज़माने में एक आख़िरी किताब

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16 DEC 2024 AT 14:28

मैं गाता रह गया सर-ए-अंजुमन में अकेला
वो जाने वाला मेरे सारे सुर ताल ले गया

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18 NOV 2024 AT 20:01

और फिर वो इमारत भी सराय सी हो गयी
जिसको किसी का अपना मकान बनना था

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24 JUL 2024 AT 2:20

मैं विद्यार्थी हुआ,
पिताजी के नाम से।
मैं नागरिक हुआ, नौकरी करी,
वो भी पिताजी के नाम से ही।
जन्म से मरण तक का मेरा संस्मरण,
केवल पिताजी के नाम से हुआ।

मैं एक अनाम, गुमनाम
और बेनाम माँ की सन्तान,
कहो ना माँ,
आख़िर क्या हैं नाम तुम्हारा?

ना किसी के द्वारा पूछा गया,
ना किसी के द्वारा पुकारा गया,
कहीं भी ना उच्चरित हुआ,
वो तुम्हारा नाम।
धरती की संज्ञा नहीं,
ना ही ईश्वर का उपनाम चाहिए,
मुझे तुम्हारा ही नाम चाहिए ।
कहो ना माँ,
क्या हैं नाम तुम्हारा।

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23 JUL 2024 AT 1:26

सबके हिस्से में नहीं आते
वो कंधे - वो सहारे,
जिन पर सिर रखकर,
समस्त संसार को
बिसरा कर,
संपूर्ण शान्ति के साथ,
एकदम बेफिक्र होकर,
अश्रु बहाये जा सके।

कुछ लोगों के अश्रु
एकान्त में
गोपनीय ही बहे
और
समाप्त हो गए
एकाकीपन के गर्भ में
किसी अजन्मे मृत बालक के जैसे।।

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31 MAR 2024 AT 19:51

सबने देखा है,
इस मौसम का कड़वापन।
पर,
मैंने देखा हैं सौंदर्य।
मैं ने पाया,
सेमल को खिलता हुआ,
आम को फलता हुआ ,
गेहूँ की बालियों को पकता हुआ,
नीम को सफेद फूलों से लदता हुआ
अमलतास को सुनहरा होता हुआ,
गुलमोहर को खूबसूरती से भरता हुआ
और देखा है
परिंदों को उड़ता हुआ स्वछंद नभ में
और कहते हुए सुना हैं
हे प्रकृति !
धन्यवाद तुमको।

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15 MAR 2024 AT 1:26

है रोशन करती इस फ़िज़ा को, ये कुदरत एक शम'-साज़ हैं
कमाल की नक्काशी है बहार में, ये वसन्त कोई रंग साज़ हैं

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22 JAN 2024 AT 18:54

औरत
नासमझ के लिए जिस्म
अकलमंद के लिए रूह

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21 JAN 2024 AT 3:58

कोई एक शख़्स तो यूं मिलें
कि वो मिलें तो सुकून मिलें

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21 JAN 2024 AT 1:32

मेरे इश्क़ को मेरे खुदा ने कुछ यूं अजब अजूबा कर दिया
मेरे सबसे प्यारे इंसान को मेरा सबसे बुरा तजुर्बा कर दिया

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