मासूमियत आंखों में थी,अल्हड़पन जुबां पर बसता था
ना होता था थकान का जिक्र,मन खुद ही हर्षित रहता था
वह आंगनबाड़ी का खाना, और जन-गण-मन का गाना
किताबों में उलटन-पलटन, और भैया-दीदी की उतरन
वह चेहरे भरी हुई मुस्कान, सभी रितियों से अंजान
वह दादी मां की कहानियां, या फिर चंपक वाली दुकान
वह किचड़ से सनी हुई मिट्टी,और दोस्तों से हुई कट्टी
जब बिखरे पड़े रहते थे बाल, और मीठे पान से होंठ लाल
तब गर्मी में था बुरा हाल, और कूलर करता था कमाल
अब सुख सुविधाएं सारी हैं, समाज का हूकूम बस चलता है
कितने भी पैसे ला दो तुम, बचपन नहीं अब सस्ता है
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