शूल सी लगे, कभी जो सुख प्रदत्त थी, पूस की चली हवा, वो भी मनमुख सी। ठिठुरे जीव सभी, बाट जोहते धूप की, सूती सब सहेज दिए, लाद लिए ऊनी। अलाव कहीं जले, सभी हैं हाथ तापते, बाल सब मस्त हैं, रेवड़ियां जो फांकते।
आज, दो मिलाकर तीन दिहाई, जब अंतिम पग पार कराई। आंखों में चमक, ऊंचा भाल, करते उस्ताद फौलाद ढलाई। तारामण्डल से तोड़, मां भारती, कांधे पर दिया जोड़ा सजाए। आज सपूत बना है सैनिक, देख सकल ब्रह्माण्ड हर्षाए।
रचयिता ने कैसा खेल रचाया, अपने आशीष को बूंदों में बरसाया। मनुष्य अपने भाग्य से आगे क्या संजो पाया, ऐसे ही प्रकृति ने अभिशप्त मेघ गरजाया।। चलो जीवन के इस रहस्य को समझ लें, बस आवश्यकता अनुसार ही हम सब लें। इस धरती को आगामी पीढ़ी की धरोहर मान, प्रयोग में लाएं, ईश का बस एक उधार जान।।
समस्या इस बात की थी कि सच कौन बोलेगा? मंत्रीजी बोले, मैं बोला तो ED मेरी पोल खोलेगा। इससे अच्छा मैं दो घड़ियाली आंसू टपका दूं, खरा या खोटा हूं, कसौटी पर कौन है जो तोलेगा। मैंने बेच दिए ईमान सभी आज तलक जो भी थे, कल सुबह नया बही और नया खाता मैं खोलेगा। अब भला कौन सच बोलेगा, कौन सच बोलेगा??
ईश्वर ने अनुमति दी, ऊपर एक बक्सा ला सकोगे। मनुष्य असमंजस में, कितना बड़ा बक्सा रखोगे? परंतु वो भी था सृष्टि का रचेता, इतना वो भी चेता। अपनी कृति की सोच वो तुरंत भांप गया, बक्सा उतना बड़ा हो जिसे अपने सर पर लाद सकोगे।
अमावस की रात, सूझे हाथ न हाथ। सोए बंधु भ्रात, पर तू निश्चय ही जाग।। तिमिर चाहे घनघोर छाए, अपने बिछड़े जब साए। शत्रु न आंख कभी उठाए, हे सीमा प्रहरी तू जाग।। श्रावण ऋतु आए, मेघ व्योम पर खूब इठलाए। चाहु ओर हरितिमा छाए, मेरे वीर सपूत तू जाग।।