कभी-कभी जो ख़याल आये!
हक़ीक़तों पे सवाल आये!
गली-मोहल्ले ने की तरक्की
इमारतों के मिसाल आये!
चुनौतियों से जहाँ थका हूँ
कि याद भूले बवाल आये!
वो मुझसे मिलने जिधर भी आये
अदाओं के कुछ कमाल आये!
वो एक हमदम बिछड़ गया जो
तो ज़िन्दगी में मलाल आये!-
हमें तुमसे मुहब्बत है,
मगर तुमसे नहीं कहते!
तुम्हारे ही बदौलत है,
मगर तुमसे नहीं कहते!-
रही उसको न शायद अब, ज़रा-सी भी मुहब्बत जब,
मुझे ही क्यों पकड़ती है, ये इक-तरफ़ा मुहब्बत रब!-
जनवरी अच्छा था,
मगर फ़रवरी जितना नहीं!
मार्च ने भी बड़े मज़े कराये थे।
अप्रैल-मई लाचार थे,
जून-जुलाई मायूस!
अगस्त ने वापिस जलवे बिखेरे,
सितंबर भी ख़ुशगवार ही निकला!
अक्टूबर ने आस जगाये रक्खी,
और नवंबर भी नए-नए अरमान देकर गुज़र गया।
दिसंबर आया फिर आइना लेकर,
दिखाने क्या किया मैंने साल-भर;
मगर उसपे दे मारा पत्थर,
और नए साल का हाथ पकड़कर
मैं तो आगे निकल गया।-
साल बदलता है,
तब इंसान को भी बदलने की होती है खुजली;
वह आंकड़ों की तरह अपनी पिछली गलतीयाँ
गिरा देता है,
और संवार देता है ख़ुदको
एक नए आँकड़े-सी ज़िन्दगी से!
उसी बर्ताव से गुज़रने लगते हैं
नए साल के नए दिन;
वही पुरानी आदतें, अक्लमंदी,
और आरज़ूओं के चलते
फिर पुराना हो जाता है नया साल!
मगर इंसान नहीं मानता अपनी गलती
उसे दोहराते जाता है;
दोष उसी साल पर डालता जाता है!
बोलता तो है, पर इंसान बदलता नहीं
उतने ही में फिर एक बार
साल बदलता है।-
मौसमों की मस्ती है,
खिलखिलाके हँसती है
आँखें तुम्हारी कहकशाँ!
मुस्कुराहटों तले,
आरज़ू है आ गले लग जा..
रात चाँदनी में यूँ जग जा..
तारों की हो डगर,
हो हम-तुम हमसफ़र;
देखेगी दुनिया ये सारी,
चंदा की कश्ती में जारी,
इश्क़ की अपनी सवारी...!-
एक पुरानी क़ब्र को खोदते हुए
मिट्टी निकाली जा रही थी,
और बात दोहराई जा रही थी गुज़िश्ता लम्हों की!
मानों क़ब्र में जो दफ़्न है,
उसकी याद ही ने पुकारके बुलाया हो,
और खुदाई काम शुरू करवाया हो!
खुदाई होती गई,
और इतनी हुई कि कफ़न दिखने लगा;
मगर जैसे ही उसे खोला गया,
कि वह तो खाली था!
अंदर तो कुछ न था!
कौन-सी बात की याद आई,
क्यों करवाई इतनी खुदाई,
सोचते-सोचते बाहर आते ही-
चारों ओर फैला मिट्टी का ढेर दिखा!-
एक बात चूभी तो यूँ चूभी
कि दिन भारी-सा हो गया
सिसकी निकली सूखे होंठों से
कंधों पे बोझ बढ़ता गया
अंदरूनी गर्मी बदन में फैली
आँखों से अनदेखे आँसू बहे
जैसे मायूसी के मच्छर ने काटा हो
ज़ोर से मारा हो एक चाटा
ख़ामोशी ने जकड़ लिए पाँव
साँस के सिवा रुका हुआ सब
ज़ख़्म के अलावा सब कुछ निस्तेज
खालीपन का हमला
अकेलेपन की बारिश
क़तरा-क़तरा जमता हुआ लहू
बेबसी लाचारी इंसानियत का ख़ून
इज़्ज़त की माँ की आँख और
ज़हन की हुई ऐसी तैसी
एक बात चूभी तो यूँ चूभी!-
चोट लगती है तो चिल्लाते हैं हम,
और चीखे कोई, छिप जाते हैं हम!
कुछ भले लोगों को कह दें, ठीक है,
ख़ुदको क्यों इंसान बतलाते हैं हम!
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