दूर नग की स्याह तुंग कंदराओं में
गूंज रहा था अनहद नाद,
झूम रहे थे थलचर जलचर
अंक भरे थी धरा गंग धार।
योग सूत्र की शक्ति से ध्यानमग्न बैठे थे ध्यानी
गूढ़ प्रश्नों के उत्तर बूझ रहे थे ज्ञानी विज्ञानी,
मैं बावरा भ्रमर की भांति भटका घाटी-घाटी में
पीयूष पान प्रकाम लिए आखिर मिल गया माटी में।
अनंत काल और अनंत भोग भी बुझा ना पाए प्राण पिपासा
निर्वाण प्राप्ति हेतु फिर जन्मा लेकर वही पुरातन जिज्ञासा...-
नील गगन पर छाये जब घनघोर घटा का घेरा
मन कुसुमित मेहप्रिय ज्यूँ दिखावे नाँच अनेरा,
आंगन में बैठी ताके वो हर एक बरसती बून्द
सींचे बंजर भावों को, पनपे चिन्तन सुनहरा।
नील गगन पर छाये जब घनघोर घटा का घेरा।।-
सत् चित्त स्वरूप नारी
कुंठित चेतना की प्रतिकारी
आनंद पथ पर अग्रणी
फिर क्यों विपदा की मारी?
सत् चित्त स्वरूप नारी।
त्याग-धर्म के कुरुक्षेत्र में,
याज्ञसेनी सी धैर्य धारी
ओझल होते पुरुषार्थ को
करे प्रकट भर हुंकार भारी।
करुणामयी,
समुचित सम्मान की अधिकारी
सत् चित्त स्वरूप नारी।-
एकांत मुझे दृष्टि देता है,
अपने अस्तित्व की गहराइयों तक झाँकने की दृष्टि।।
धैर्य मुझे शक्ति देता है,
सुनसान अंधियारे गलियारों में रास्ता खोजने की शक्ति।।
करुणा मुझे आधार प्रदान कराती है,
एकांत में धैर्य धरने का आधार।।
और एक स्त्री होना इन सबका समागम है।-
कहती हो तुम मेरे पास हो
हर साँस की तुम ही आस हो
मेरे गीत का श्रृंगार हो
जीवन का आधार हो
सुबह की हो तुम लालिमा
मेरे काव्य का अलंकार हो।
शब्दों में ना जो व्यक्त हो
उस अनुभूति का विस्तार हो।
हो कौन तुम? क्यों मौन तुम?
किस कथा का किरदार हो?-
मेरा मन व्याकुल है एक ऐसी कविता लिखने के लिए
जिसे लिखकर मन कहे
अब बस!
जो कुछ भी भीतर था सब उड़ेल दिया।
अब मैं हूँ निशब्द, संवेदनहीन, अनन्त में विलीन, शून्य!
भावों की वेदना से मुक्त, स्वछन्द विचरण करती एक स्मृति,
जिसकी तरंगों के सत्व से एकांत में बैठा योगी बुद्धत्व पा जाए
और
सृजन करे एक विचार का जो कालांतर में पहुँचे उस व्याकुल कवि की कलम तक जिसे अपने अस्तित्व की सम्पूर्णता को निचोड़ना है एक कविता में और कहना है
अब बस!-
तुम फूल बनो, मैं भ्रमर बनूँ
तुम गूढ़ बनो, मैं प्रखर बनूँ
गर हो तपिश तुम, तो बनूँ कपिश सा मैं साया
बोले जो तुम "हूँ वैरागी", तो मैं हूँ कामरूपिणी माया।
तुम चाँद बनो, मैं बनूँ चकोर
तुम सांझ बनो और मैं भोर
गर हो कृष्ण तुम, तो बनूँ मैं अटूट प्रीत की डोर
बोले जो तुम "हूँ निर्मोही", तो मैं हूँ चतुर चपल चितचोर।
तुम ताल बनो, मैं मृणाल बनूँ
तुम अर्थ बनो, मैं सवाल बनूँ
गर हो नीर तुम, तो बनूँ अनन्त सी मैं तरंग
बोले जो तुम "हूँ अरागी", तो मैं हूँ अनवरत प्रेम अनुषंग।-
We are trapped in a generation that
lacks awareness about
diving deep.
With a shallow outlook,
they are unable to comprehend
what a wild soul holds in itself
while running barefoot on a
damp forest floor.
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मैंने अपने जीवन में अनेक लेख, कहानियाँ और कविताएँ लिखी।
कुछ नई रचनाएँ अब भी कहीं मेरी डायरी के पन्नों में कैद हैं,
तो कुछ साहित्यिक ब्रह्मांड में बेसुध पड़ी हैं।
जीवित पर शिथिल!
अभिव्यक्ति को आतुर।
कुछ रचनाएँ ऐसी भी जो शायद अब रही नहीं।
वैचारिक मतभेद की वेदी पर न्यौछावर कर दी गई।
आज भी भटकती हैं वो मन के किसी अनजान कोने में।
साक्ष्य रहित!
पहुँच से दूर।
मृत या सुषुप्त?-