तेरी बातें तू ही जाने मुझे तो सब कमाल लगता है
जो मालिक दे तो शुकर उसका
जो न दे, तो कोई मलाल नही
मेरे गुरु की माया वो ख़ुद ही जाने
उसके किसी फैसले पर कभी सवाल नहीं-
ख़ुद की अहमियत पर जो कभी सवाल हो,
देख लेना काँटों में खिले हुए उस गुलाब को
ज़रूरी नहीं यारों की लंबी चौड़ी फौज हो
बस चाहे चार हों पर साथ हो तो मौज हो
निकल गई जिंदगी ढूँढते किसी का साथ
समझा नहीं,पहले ख़ुद का ख़ुद को साथ हो
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अल्फाज़ जाया हुए समझाने को,
गलत फ़हमी का गुबार फिर भी उड़ता है
अब चुप रह देख विशेष
कौन तेरी ख़ामोशी समझता है-
कितनी झूठी थीं वो कसमें हमारे प्यार की
की तू भी ज़िन्दा है मैं भी ज़िन्दा हूं-
वो कच्ची उम्र का प्यार कुछ ऐसा खुमार देता है
बिन चाकू तलवार बहुत गहरा निशान देता है
की धुन्ध सी छाती है यादों की जब चारो तरफ
जिधर देखूँ,आज भी सिर्फ़ वो दिखाई देता है
मोहल्ले से दूर उस बरगद के तने पर गुदे दो नाम
वो दरख्त बरसों से उस इश्क़ की नुमाइश देता है
कैसे धड़केगा दिल कैसे संभलेगा उनके बिन
पर ये कमबख्त वक्त सब सीखा ही देता है
इक मुद्दत हो गयी है उन्हें देखे मिले
और यह दिल आज भी जान देता है...
वो कच्ची उम्र का प्यार कुछ ऐसा खुमार देता है-
कभी मन अधूरा, कभी ख्वाहिशें अधूरी,
कभी वक़्त की कमी, कभी दूरीयो की मज़बूरी
कभी ज़ज्बात अधूरे, कभी बातें अधूरी
कभी मेरा दिन अधूरा कभी मेरी रातें अधूरी
कभी अल्फाज अधूरे तो कभी ख़ामोशी अधूरी
कभी दिल का सुकून अधूरा, कभी बेचैनी अधूरी
इस अधूरेपन की दुनिया में लिपटा हूं, सिमटा हूं
फ़िर भी दिल की गहराई से, रूह की सच्चाई से,
यह इज़हार करता हूं,..... मैं तुमसे प्यार करता हूं-
छुपा के, कही दबा के, रखूँगा इसे किसी किताब में..
मेरी साहिबा ने दिया यह पहला गुलाब जो प्यार से..
उनके ज़ज्बात महकते है शाह गुल के सूखे पत्तों से भी
जनाब, इक फूल भारी पड़ गया पूरे गुलज़ार पे
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तुझ से रिश्ता रूहानी सा है
वो परियों की कहानी सा है
ना रिश्ते पर जहां ज़ोर कोई
रिश्ता जताने का जहां न शोर कोई
ना बेमतलब के वादे ना बांधे डोर कोई
सब कुछ बस रूमानी सा है..
ना दूरीयों की फ़िकर कोई
ना मजबूरियों का ज़िकर कोई
ना झूठ है ना शक़ की नज़र कोई
सब कुछ इक खुमारी सा है..
इक दूजे से बेहतर होने की न होड़ कोई
ना झुकने ना झुकाने का जोर कोई
न कोई आगाज़ न छोर कोई
बिन तेरे सब बेमानी सा है...
तुझ से रिश्ता रूहानी सा है
वो परियों की कहानी सा है
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अब इन आँखों को ग़म छुपाना आ गया
लबों को यूहीं बेवजह मुस्कुराना आ गया
दिल के राज़ अब राज़ ही रहेंगे
हमें भी दिखावे का जीना आ गया-
मोहब्बत के भी वो क्या किस्से थे...
जब उंगली से मेरे हाथों पर
नाम वो अपना लिखते थे
समाँ कुछ यूँ गुलज़ार होता
गिरते पलाश कभी जो बालों में अटकते थे
गरजते थे बादल दूर कहीं
और बाहों में मेरी वो सिमटते थे
मूँद जाती निगाहें खुदबखुद
लबों से लब जब मिलते थे
मोहब्बत के भी वो क्या किस्से थे......-