अपना दिस नित झीकि रहल अछि
मनोभावकेँ चीखि रहल अछि
कलम हाथ मे हम्मर तेँ की
कविता हमरा लीखि रहल अछि-
भार जिनगी भेल अछि तँ की कहै छी
मुँह फोलिते राति-दिन काँ काँ करै छी
मैथिली संगीत थिक बूझब कोना से
जीह पर अनकर जखन बोली उघै छी-
ओ 'मनरेगा' कहलनि
आ अहाँ 'मरेगा' कहै छी
हम अप्पन उजड़ल फसिलक
सारा पर बैसइ छी
आ रेडियो कान लगा क'
किछु 'मोनक बात' सुनै छी
पुनि ओही बातकेँ खा क'
हम नित्तः पेट भरै छी
नित श्राप किसानक ओढ़ने
अहिना छिछियाइत फिरै छी
यौ अहाँ की गोली मारब
हम अपनहि जा लटकै छी-
कलकत्ता दिन-राति पूछैए कतय गेलह
शहर हैदराबाद कहैए कतय जेबह
दू शहरक एहि घिच्चा-तानी सँ फटकी
हमरा हम्मर गाम कहैए भेलह, घुरह!-
न रूठो झाड़ देने पर, शहर की ऐ मेरी मिट्टी
लिपट जाऊंगा फिर तुमसे, मैं जिस दिन गांव जाऊंगा-
शाम धुंधलाई हुई सी, सामने तूफां कई
उम्र की कश्ती को जाने कौन कैसे चूम ले
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बड्ड सोचि-बिचारि क'
खूब दाँत चिआरि क'
हम एक दिन कएलहुँ
सर्जिकल स्ट्राइक
ओ नित्य करैए..
हमर हाथक चूड़ीक खनकब
ओकरा करैत छैक आमंत्रित
कनी आर नङ्गटे नचबाक लेल
किछु आर मूड़ी कटबाक लेल
एमहर हम
अपन श्रृंगार-बॉक्स मे जोहि रहल छी
'ऑलिव ब्रांच', उजरा पँड़ुकी, आ
विश्वशान्तिक कोनो प्रतिष्ठित अओजार!-
बड्ड दीब लगैत छैक ने
नचैत मयूर?
बनि जाइत छैक तमासा
मुदा ओकर बाजब
नहि सोहाइत छैक ककरहु
अपन संविधान एकर साक्षी अछि
मयूर, हमर-अहाँक राष्ट्रीय पक्षी अछि
हमहूँ छी एक राष्ट्रीय धरोहरि
अपन हाकिम सभक लेल
हम एक बरहमसिया
नचैत मयूर छी...-
श्रमिक-दिवस के पावन अवसर पर
जब लिख रहे थे बाबू साहब
मजदूरों की दुर्गति पर एक अत्यंत मार्मिक कविता
तो टेबल पोछते हुए नालायक किसना ने
गिरा दी रोशनाई की शीशी
और पुत गयी बाबू साहब की कविता पर कालिख
कलम गिर गयी हाथ से और उठ गयी छड़ी
फिर लाल रंग की गाढ़ी रोशनाई से
बाबू साहब लिखने लगे किसना के देह पर
श्रमिक का गुणगान करती
एक अत्यंत भावपूर्ण कविता...-
छल कहियो शिक्षहि सँ एमहर बुद्धिबलक पहिचान
ज्ञानक छल ई पुण्यभूमि, छल ज्ञानहि सँ विद्वान
युग बदलल तँ हवा बदललै, अजब-गजब सभ ताल
आजुक स्थिति जे जते पढ़ल से ततबे पुष्ट अकान-