पुष की सर्द रात में, चंद सिक्के की आस में काँपते हाथों को, एक कंबल देने में है, लाठी के सहारे चलते बूढ़े कंधो को, संबल देने में है, परिवार के पोषण करते उन छोटे कदमों को, उनका बचपन देने में है, कर सके इतना जो हमारे वश में हो, इस छोटी दुनिया को अपना, समर्पण देने में है।
जलते हैं चिराग, हर शय में है उजाला, पर जलने का दर्द कोई नहीं बताता, पलते हैं पंक्षी, एक जीव जन्म लेता, पर घोंसले का दर्द, कोई नहीं बताता, उगाता है सोना, सीने पर हल चलाकर, पर धरती का दर्द, कोई नहीं बताता, ऊँगली पकड़कर, वो जग को जीत लेता, पर कांपते हाथों का दर्द, कोई नहीं बताता, उगता है सूरज, चलता है पूरा जीवन, पर डूबने का दर्द, कोई नहीं बताता।
कहानियों में जी रहें हैं, और कल्पनाओं को महसूस कर रहें हैं ये इंसान हैं आज के, ना सो रहें हैं ना जाग रहें हैं,
चाहते क्या है कहना और क्या सुन रहें हैं, ये बुनियाद है सोच की, ना कह पा रहें, ना समझ रहें हैं।
जाना कहाँ चाहते हैं, कहाँ जा रहें हैं, ना रास्ते ढूंढ़ रहें, ना मंज़िल पा रहें हैं। जाने किस कशमकश में खोए हैं, जाने क्या खोज रहें हैं, ना जी रहें हैं आज को,ना कल को भुला रहें हैं।
आँखों में छुपे दर्द को ख़ूब पहचानती है, अनकही बातों को पल में जान जाती है, मेरी हर उलझन, वो जाने कैसे सुलझाती है, एक माँ ही है, जो सब जानती है। चोट मुझे लगती, आँख उसकी नम हो जाती है, मेरे हर जख्म की, वो मरहम बन जाती है, मेरी हर भूख, बस उसकी रोटी पहचानती है, एक माँ ही है जो सब जानती है। मैं करता शरारत, वो बस मुस्कुराती है, अपने गुस्से में भी बस, वो प्यार झलकाती है, मेरी हरकतें,उसकी नजरों से कहाँ बच पाती है, एक माँ ही है जो सब जानती है।