करके वाजिब गुनाह तेरी आजमाइश का,
ए रहब़र गवांया है तेरा उम्र भर का साथ हमने//
सदियां बीती, मगर मुस्कुरा ना सके ये लब मेरे...
ग़मे कुरब़त में खुद को कर लिया है उदास हमने//
जिसे चूमा था एक बार तूने वही पवित्र ग्रंथ हूं मैं..
व़फा की गर्दिशों में खुद को कर लिया है कुरान हमने//
बरसा कर अब्र भूल गए,तेरी यादों के हर ठिकाने को...
बिछड़कर तुझसे हर दिन किया है, मौत का एहसास हमने//
ना मिल सके जहां में,, तो रब के घर मुलाकात होगी...
समेट कर जज्बातो को , पहन लिया है सब्र का लिबास हमने//
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