Manisha Dubey   (मन-ईशा की कलम से...)
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Joined 23 July 2018


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14 APR AT 10:19

आज एक नई शुरुआत करते हैं,
एक नई परंपरा गढते हैं।
जहाँ इतवार की सुबह,
माँ के लिए इतवार हो,
न घड़ी की सुइयों की दौड़,
न चौके की झकझोर।
जहाँ सुबह में माँ की अंगड़ाई हो,
चाय की प्याली कभी बगिया में,
माँ के हाथ में भी आई हो।
और दोपहर भी अलसाई हो,
माँ ने किसी मनपसंद किताब संग,
सारी दुपहरी एक जगह बैठे बिताई हो।
शाम भी हो सुकून से भरी,
रात पर भी सोमवार की
तैयारी की न कोई ज़िम्मेदारी हो।

क्यों न, इस इतवार को
माँ के इतवार की बारी हो….

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8 APR AT 7:29

शब्द जो लिखे नहीं
भाव जो कहे नहीं
बन सैलाब उमड़ते है,
मन में कोलाहल मचाते
नश्तर से चुभते हैं।

सोचो कभी तो लगता है,
क्या ही है ये बला?
कभी ख़ुद को भी कोई
ऐसे घायल करता है भला….

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24 MAR AT 12:13

दिल से लिखे अल्फ़ाज़
तुमने पढ़े तो क्या बात,
न पढे तो क्या ख़ाक अल्फ़ाज़?

मेरे दिल के जज़्बात
तुमने समझे तो क्या बात,
न समझे तो क्या ख़ाक जज़्बात?

जीवन के जैसे भी हालात
तुम साथ हो तो क्या बात,
बिन तुम्हारे तो क्या ख़ाक हालात?

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30 JAN AT 18:37

जीवन की आपाधापी में
सुख दुःख का तानाबाना
सुख ही सुख चाहा बुनना
दुख के फंदे छोड़ पाए क्या?

सुख तुम कह दो सबसे
मगर कभी दुख कह पाए क्या?
अगर कहा भी तुमने
क्या किसी ने सुना?
सुन भी लिया तो
क्या समझ भी पाया,
क्या उसने महसूस किया?

अकेलों की इस भीड़ में
दिल खोलकर सुख बाँटो,
मगर दुख का ज़िक्र करने से पहले
सुनने लायक़, तुम्हारी फ़िक्र करता इंसान छाँटो।

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13 DEC 2023 AT 23:21

Walking through the memory lane,
Talking to myself in my brain,
Same time last year,
I was more sorted.
It gives me courage to try harder,
because if I did it before
Then I can do that today too.

For couple of things,
I feel, I wasn’t so clever before,
the way I am today.
Still I feel good,
because I improvised myself..

Happy me, patting myself on the back!!!

-


2 SEP 2023 AT 10:04

हे कान्हा,
अब तुम ही आना ।
नहीं चाहिए सूझ समझ
न ही उधौ का ज्ञान ।
हमको तो बस तुम ही चाहिए
तुम में बसते प्राण।
हिय में सबके तुम बसे हो
नैनों को तुम ही दिखते हो ।
दिखकर भी जब न दीखो तब
मन में टीस बन चुभते हो ।

हे कान्हा,
अब तुम ही आना….

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9 AUG 2023 AT 5:22

बड़ा अचंभा हुआ,
जब चाँद को एक पेड़ की
टहनी पर रखा देखा,
भला, चाँद को कहाँ ज़रूरत,
किसी के काँधे की,
किसी भी सहारे की,
आसरा, और वो भी
एक सूखे पेड़ की टहनी का??

पाल ली ग़लतफ़हमी,
नजर से जो दिखा,
उसे बिन समझे सच मान लेने की।

उफ़्फ़, फिर एक और ग़लतफ़हमी,
शीतल को शांत,
और एक को मज़बूत मान लेने की॥

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27 MAY 2023 AT 6:12

प्रिय नदी,

अनवरत कल-कल बहती तुम
क्या बिल्कुल नहीं थकती तुम?
कैसे दो किनारों के बीच बँधीं
बिना संतुलन खोए बह लेती हो?

मन नहीं करता, कभी थम जाने का,
दो पल को, कहीं ठहर जाने का?
या डर है, कहीं रूक गईं,
तो अपनी उपयोगिता खो दोगी?
या फिर नहीं करता मन, स्वच्छंद झरने सा
बिना किनारों की परवाह किए बहने का?

क्या भाता है तुमको यूँ अंत में
समुंदर से मिल जाना?
या नहीं जँचता तुमको बिल्कुल
खारेपन में अपनी मिठास,
अपने अस्तित्व को खो जाना?

जीवन को परिभाषित करतीं तुम
पाबंदियों ज़िम्मेदारियों को संग लेकर
अनवरत बहती रहतीं तुम,
आगे बढती, सबको प्रेरित करतीं तुम।

-तुमसे प्रेरित, तुम सा बनने प्रयासरत

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21 MAY 2023 AT 8:48

आजकल माथे पर शिकन
दिखने लगी है,
मुस्कुराहट का मेकअप
काम नहीं कर रहा शायद,
कोई तो नई
जुगत लगानी होगी,
ख़ुद को बस
ख़ुद तक ही रखने की….

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10 MAY 2023 AT 5:52

पुरखिन जो जो कहतीं थीं
सोते जगते नसीहतें देतीं थीं
वह उनकी कीमती सीख थी
जो साफ शब्दों में नहीं कह पाईं।

नहीं कह पाईं, हुनर जड़ लो हाथों में
कह गईं, बस कड़े-कंगन पहनने को।

नहीं कह पाईं, धीरज धर लो माथे पर
कह गईं, बिंदिया न गिरे कभी।

नहीं कह पाईं, सब कुछ तुम्हारे सिर,
सब कुछ तुम्हारी ज़िम्मेदारी,
कह गईं, घूँघट न गिरे सिर से।

नहीं कह पाईं, तत्परता कितनी जरूरी है
ज़िम्मेदारी ओढ़ने के लिए
कह गईं, चोटी कसकर बाँधा करो।
और पल्लू खौंस लिया करो कमर में
अड़चन नहीं होगी काम करते वक़्त।
ये नहीं कह पाईं कि जो ज़िम्मेदारी
तुम्हें सौंप दी जाएगी बिना पूछे,
वो अमूमन नामुमकिन है,
दो हाथधर के लिए…

काश…पुरखिन,
यही बात सही शब्दों में कहतीं,
तो शायद तुम्हारी आने वाली पीढ़ियाँ
कुछ अधिक परिवर्तन ला पातीं।

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