चार-सू ख़ुशबुएँ फैलाने का फ़न याद नहीं
ख़ुश्क गुल हूँ मुझे दस्तूर ए चमन याद नहीं
माज़रत मुझ को हवाओं की छुअन याद नहीं
इस ख़राबे में कब आई थी पवन याद नहीं
देखिए एक ज़माने से हूँ पाबंद ए क़फ़स
अब मुझे आसमां का चाल चलन याद नहीं
जिस तरफ़ देखिए तारीकियाँ हैं रक़्स कुनाँ
कब हुईं हम पे इनायात-ए-किरन याद नहीं
कह रहे हो जिसे ज़िंदा दिलों की बस्ती वहाँ
इतनी लाशें थीं कि तादाद-ए-कफ़न याद नहीं
आज बन बैठे हो जो साहिब-ए-दरिया तो तुम्हें
पा-ब-गिल लोगों के होठों की तपन याद नहीं
- मनीष पाठक-
हमारे हिस्से में रंज-ओ-अलम ज़ियादा है
दुखों की हम पे निगाह-ए-करम ज़ियादा है
अमीर-ए-शहर तेरे अपने तजरबे होंगे
हमारा दश्त हमें मोहतरम ज़ियादा है
कोई सबब है कि मुझको तेरे बिछड़ने का
मलाल कम है मगर आँख नम ज़ियादा है
उलझने लग गईं साँसें प' ये नहीं सुलझीं
ऐ ज़िन्दगी तेरी ज़ुल्फ़ों में ख़म ज़ियादा है
सवाल-ए-वस्ल पे वो मुस्कुराए और बोले
किसी ग़रीब को इतनी रक़म ज़ियादा है
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गो तैराकों में दानाई बहुत है
पर इस तालाब में काई बहुत है
सदा मेरी कहाँ पहुँचेगी उस तक
ख़ुदा के घर की ऊँचाई बहुत है
बहुत धीरज है मेरी तिश्नगी में
मुझे पानी की परछाई बहुत है
सफ़र करता हूँ बे-पापोश, मुझको
जुनून-ए-आबला-पाई बहुत है
अगरचे हो चुकी है ज़ब्त की हद
मगर रोने में रुस्वाई बहुत है
पुराने तीर के दिन लद गये अब
नये ज़ख़्मों की गहराई बहुत है
बहुत मुश्किल है कार-ए-शे'र-गोई
बहुत है रे मेरे भाई बहुत है
- Manish Pathak
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दिलेर शेर को हरगिज़ न पालतू रखना
रखो चराग़ तो आंधी के रू ब रू रखना
हर आस्तीन में इक धारदार ख़ंजर है
हुनर सा बन गया है जिस्म में लहू रखना
ख़िज़ाँ परस्त हवाओं की हुक्मरानी में
दिवानगी है तमन्ना ए रंगो बू रखना
किवाड़ दिल के नहीं खुलते हर किसी के लिए
खुले हैं तुम पे तो इस घर की आबरू रखना
हमारे दिल का ये आज़ार भी अजीब सा है
जो शय है ही नहीं उस शय की आरज़ू रखना
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तेरे जाने पे साथिया मैं ने
दिल का दर सील कर लिया मैं ने
एक क़तरा ख़ुशी की ख़्वाहिश में
उम्र भर जाम ए ग़म पिया मैं ने
क़ैस के हुक़्म को न टाल सका
चाक दामन नहीं सिया मैं ने
ज़िन्दगानी का बोझ उठाते हुए
ख़ुद को हलकान कर लिया मैं ने
कुछ तमाशाइयों के कहने पर
फूस पर रख दिया दिया मैं ने
एक रूदाद ही बयां की है
चेंज कर कर के क़ाफ़िया मैं ने
आज फिर जिस्म है थकन से चूर
आज भी कुछ नहीं किया मैं ने
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अश्क आँखों से गर रवाँ होते
बिन कहे रंज-ओ-ग़म बयाँ होते
पट गयी है ज़मीं ख़ुदाओं से
काश कुछ आदमी यहाँ होते
हम में होता जो गुमरही का फ़न
आज हम मीर-ए-कारवाँ होते
इक नदी रहती हम-सुख़न हम से
ख़ुश्क होठों से हम अयाँ होते
कल अगर देखते न आईना
आज हम ख़ुद से शादमाँ होते
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ख़ुद के चलाए तीर का नख़चीर बन गया
मैं आप अपने पांव की ज़ंजीर बन गया
इक दिन दिखे थे रास्ते पे उसके नक़्श ए पा
उस दिन से ही मैं दाइमी रहगीर बन गया
फूलों की डाल ख़्वाब के पहलू में रह गयी
सहरा की धूल फांकना तक़दीर बन गया
हरकत कोई बदन में न जुंबिश ज़बाँ पे है
इक शख़्स जीती जागती तस्वीर बन गया
नाज़ुक समझ के बारहा मसला गया जिसे
वो फूल इख़्तिलाफ़ में शमशीर बन गया
अज्दाद से मिली मुझे विर्से में मुफ़्लिसी
दम तोड़ता मकां मिरी जागीर बन गया
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सायबां मिलता नहीं था सर छुपाने के लिए
ख़ूब तरसे हैं परिंदे आशियाने के लिए
जिस गली के वासियों को तीरगी से प्रेम हो
कौन जाए उस गली दीपक जलाने के लिए
काश चारागर से मिल जाती हमें कोई दवा
रूह पर जो दाग़ हैं उनको मिटाने के लिए
जुगनुओं ने इलतिजा की तो बुझा ही रह गया
चांद आमादा था वरना जगमगाने के लिए
हर किसी के शाने पर है एक सर रक्खा हुआ
मैं अगर रोऊँ भी तो किसको दिखाने के लिए
सर पे वो दस्तार रखने से भला क्या फ़ायदा
बारहा झुकना पड़े जिसको बचाने के लिए
दिल के सब अहवाल कहते हैं ये पेशानी के बल
कौन खोले होंठ हाल ए दिल सुनाने के लिए
- मनीष पाठक
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मुक़द्दर जो था जिस दर का वहाँ वो शय हवा लाई
कहीं ख़ुशबू बहा लाई कहीं मिट्टी उड़ा लाई
ख़ुलासा तब हुआ जाकर चमन के दीनदारों का
हवा जब हाथ में बुलबुल के टूटे पर उठा लाई
पुराने ख़्वाबों की लाशें हैं अब भी दफ़्न आंखों में
मगर ये नींद मूई फिर नये सपने सजा लाई
कुछ इक दिन को क़दम रोके दर-ओ-दीवार ने लेकिन
मिरी वहशत मुझे फिर दश्त की जानिब बुला लाई
हमारी ज़िन्दगी को पाक- दामानी से ज्यों चिढ़ हो
पुराने दाग़ धोने थे नये धब्बे लगा लाई
- मनीष पाठक
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रात-दिन अफ़्सुर्दगी से जूझते रहते हैं हम
क्यों करें मातम!ख़ुशी से जूझते रहते हैं हम
रुख़ बदलती ज़िन्दगी से जूझते रहते हैं हम
इस शनासा अजनबी से जूझते रहते हैं हम
मौत अगले मोड़ पर होगी बस इस उम्मीद में
रहगुज़ार-ए-ज़िन्दगी से जूझते रहते हैं हम
मुस्कुराने में ज़रा तकलीफ़ होती है हमें
मुस्तक़िल संजीदगी से जूझते रहते हैं हम
ऊब जाते हैं हर इक दर से कुछ इक सप्ताह में
फ़ितरत-ए-आवारगी से जूझते रहते हैं हम
कर के आ जाते हैं वा'दे आठ-दस लोगों से रोज़
और फिर कम-फ़ुर्सती से जूझते रहते हैं हम
सीखकर आये थे मक्कारों से लड़ने का हुनर
पर तेरी सादा-दिली से जूझते रहते हैं हम
फूल को छूते हुए अब कांपती हैं उंगलियाँ
तितलियों की नाज़ुकी से जूझते रहते हैं हम
पांव ख़ूँ-आलूद हैं पर चलने को मजबूर हैं
रहबरों की रहबरी से जूझते रहते हैं हम
जूझते रहते थे तुझसे जब तलक तू साथ था
और अब तेरी कमी से जूझते रहते हैं हम
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