उनके जंगलों को काटेंगे। वो हमारे घरों के बगल नए घर बनाएंगे।। फिर कुछ और पेड़ों को लगा कर। उसकी जड़ें हमारे आशियानों तक पहुंचाएंगे।।
हम बहरा बन उन्हें अनसुना कर देंगे। पर वो हर दीवार के कानों तक बात पहुंचाएंगे।। हम कोयले के हर टूकडे़ को उनसे ले लेंगे। वो जल,जंगल,जमीन के खातिर एक दिन मर जाएंगे।।
हम खुद को भविष्य बता कर। एक दिन सब कुछ उनका उनसे छीनेंगे।। बदले में जमीन का कुछ धुर देकर। बच्चों को जंगल जैसी मां से अलग कर देंगे।।
कभी-कभी लिखना, प्यार के उस इजहार से आसान होता है, जो हिचक तले रह जाता है। जब कोई आस-पास सुनने वाला ना मिले, और जज़्बात हलक तक ही सीमित हो वो सभी कविताऐं और किस्से जो किसी के प्रेम में एक तरफा लिखी गयी हो, या किसी मजबूर कि टूटती हालात बयां करें। कहानियों में दबे पड़े किसी किरदार कि, आवाज बन उभरी हो। या किसी हताश में हौसले भर्ती दो-चार पंक्तियां, या फिर किसी के साथ बिताए सफ़र कि यादें निश्चित ही मेरे मन को सुकून के कुछ छड़ देती है।
सफ़र जब ट्रेन से हो तो, खिड़कियों का महत्व बढ़ जाता है। कानों में हेड फोन्स से अजीत सिंह के गाने और नजरों से ओझल होते छोटे-छोटे गांव, मानो रफ़्तार से भागती जिंदगी को विराम दे रही हो। गाने और दृश्य ह्रदय में जगह बना ही रहे होते हैं। कि बगल से गुजरने वाली ट्रेन कि तेज हवाएं, अचानक कुछ चुरा कर लेकर जा रही हो। निगाहें जो बाहर टकटकी लगाए होती है। वो कुछ सहम सी जाती है। मन में चल रहे अनेक ख्यालों को निगल गयी हो। कुछ छड़ तक ऐसा प्रतीत होना लाजिमी है।
कभी-कभी कुछ किताबें दिल कि अज़ीज़ हो जाती है शुरुआत कहीं से भी हो, अंत हमारी कहानी को बताती हैं किन्हीं पन्नों में अपने के ना होने कि एहसास कराते हैं किसी पंक्ति पर ज्यादा ठहराव से आंखों में आशु भर जाते है कुछ तो अपने अंदर अलग खुशबू समाहित करती है तो कुछ कि कहानियां ही एक अलग महक बिखेर देती है
1. बिना कुछ कहे हमारी कहानी का भी अंत होगा। किताबों का बदल जाना, किसी अंजान से हाथ मिलाना, कहा पता था ऐसे शुरुआत होगा। 2. फिर किसी से ना मिलने वाला वो एहसास होगा। हाथों में हाथ, कंधों पर सिर, नंगे पांव बैठे नदी के किनारे ढलते आफताब का इंतजार होगा। 3. हमें मालूम नही था कि ये पल इतना खास होगा। झुकि उनकि निगाहें, आंशूओ से भरे आंख और लफ़्ज़ों में हम से बिछड़ने का एतराज होगा।— % &
रिश्तों को बिखेर देते है, किसी एक को पाने कि चाह में, दूसरों में ढूंढते फिरते हैं, जो नहीं मिला अपनों के पनाह में, और जब वो ना मिले तो, गिर जाते है,हम अपने निगाहों में, ऐसे ही नहीं ठहर जाती है, ये ज़िन्दगी चलतें-चलते राहों में,
आराम को वक्त बहुत है, अभी तो शाम होना भी बाकी है। ढलते सूरज से आश कहा खुद को प्रकाश बनाना बाकी है। टूटते हर उस होंसले में अब खुद से ही जान फूंकना बाकी हैं। मंजिल कि, भूख बहुत है, बस यथार्थ प्रयास करना बाकी है।