Manish   (मनीष गौतम)
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🇮🇳 भारतीय
नवोदयन
वाणिज्य संकाय ( कांशी हिन्दू विश्वविद्यालय )
Joined 7 February 2021


🇮🇳 भारतीय
नवोदयन
वाणिज्य संकाय ( कांशी हिन्दू विश्वविद्यालय )
Joined 7 February 2021
1 FEB 2023 AT 7:55

उनके जंगलों को काटेंगे।
वो हमारे घरों के बगल नए घर बनाएंगे।।
फिर कुछ और पेड़ों को लगा कर।
उसकी जड़ें हमारे आशियानों तक पहुंचाएंगे।।

हम बहरा बन उन्हें अनसुना कर देंगे।
पर वो हर दीवार के कानों तक बात पहुंचाएंगे।।
हम कोयले के हर टूकडे़ को उनसे ले लेंगे।
वो जल,जंगल,जमीन के खातिर एक दिन मर जाएंगे।।

हम खुद को भविष्य बता कर।
एक दिन सब कुछ उनका उनसे छीनेंगे।।
बदले में जमीन का कुछ धुर देकर।
बच्चों को जंगल जैसी मां से अलग कर देंगे।।

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30 JAN 2023 AT 11:16

कहने को दूरियां बहुत होगी,
फासले मिटाने के बहाने है हजार।
किसी दिन सफर में टकराएंगे,
बेसब्र को बस उस दिन का है इंतजार।।

शाम भी देखकर ठहर जाएगा,
बस तैयार रहना बिताने को सफर।
इज़हार-ए-मोहब्बत हो जाएगा,
एक दफा ही सही लौट आओ मेरे शहर।।

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28 JAN 2023 AT 11:11

कभी-कभी लिखना,
प्यार के उस इजहार से आसान होता है,
जो हिचक तले रह जाता है।
जब कोई आस-पास सुनने वाला ना मिले,
और जज़्बात हलक तक ही सीमित हो
वो सभी कविताऐं और किस्से
जो किसी के प्रेम में एक तरफा लिखी गयी हो,
या किसी मजबूर कि टूटती हालात बयां करें।
कहानियों में दबे पड़े किसी किरदार
कि, आवाज बन उभरी हो।
या किसी हताश में हौसले भर्ती दो-चार पंक्तियां,
या फिर किसी के साथ बिताए सफ़र कि यादें
निश्चित ही मेरे मन को सुकून के कुछ छड़ देती है।

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27 MAY 2022 AT 22:55

समाजिक हवाओं का रुख

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18 MAY 2022 AT 12:15

कभी में उसका एकलौता सच था
आज बन बैठा झूठ का परिंदा हूँ।
कौन कब कहां कितना बेसब्र था
वो भी जिन्दा है, मैं भी जिन्दा हूँ।

कहानियों से निकले किस्सों का
बस किरदार बनकर रह गया हूँ।
तुम में ख़ुद को भी तलाशने में
कोई एक कसर सा रह गया हूँ।

चाहत थी कसर को पूरा करने कि
तो अब खुद को अकेला रखता हूँ।
अर्धनिर्मित जीवन में, मैं तेरे वक्त
का बस पहर बन कर रह गया हूँ।

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22 MAR 2022 AT 19:11

खिड़कियां

सफ़र जब ट्रेन से हो तो,
खिड़कियों का महत्व बढ़ जाता है।
कानों में हेड फोन्स से अजीत सिंह के गाने
और नजरों से ओझल होते छोटे-छोटे गांव,
मानो रफ़्तार से भागती जिंदगी को विराम दे रही हो।
गाने और दृश्य ह्रदय में जगह बना ही रहे होते हैं।
कि बगल से गुजरने वाली ट्रेन कि तेज हवाएं,
अचानक कुछ चुरा कर लेकर जा रही हो।
निगाहें जो बाहर टकटकी लगाए होती है।
वो कुछ सहम सी जाती है।
मन में चल रहे अनेक ख्यालों को निगल गयी हो।
कुछ छड़ तक ऐसा प्रतीत होना लाजिमी है।

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21 FEB 2022 AT 14:12

कभी-कभी कुछ किताबें दिल कि अज़ीज़ हो जाती है
शुरुआत कहीं से भी हो, अंत हमारी कहानी को बताती हैं
किन्हीं पन्नों में अपने के ना होने कि एहसास कराते हैं
किसी पंक्ति पर ज्यादा ठहराव से आंखों में आशु भर जाते है
कुछ तो अपने अंदर अलग खुशबू समाहित करती है
तो कुछ कि कहानियां ही एक अलग महक बिखेर देती है

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28 JAN 2022 AT 10:29

1.
बिना कुछ कहे हमारी कहानी का भी अंत होगा।
किताबों का बदल जाना, किसी अंजान से
हाथ मिलाना, कहा पता था ऐसे शुरुआत होगा।
2.
फिर किसी से ना मिलने वाला वो एहसास होगा।
हाथों में हाथ, कंधों पर सिर, नंगे पांव बैठे
नदी के किनारे ढलते आफताब का इंतजार होगा।
3.
हमें मालूम नही था कि ये पल इतना खास होगा।
झुकि उनकि निगाहें, आंशूओ से भरे आंख
और लफ़्ज़ों में हम से बिछड़ने का एतराज होगा।— % &

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19 JAN 2022 AT 10:41

रिश्तों को बिखेर देते है,
किसी एक को पाने कि चाह में,
दूसरों में ढूंढते फिरते हैं,
जो नहीं मिला अपनों के पनाह में,
और जब वो ना मिले तो,
गिर जाते है,हम अपने निगाहों में,
ऐसे ही नहीं ठहर जाती है,
ये ज़िन्दगी चलतें-चलते राहों में,

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3 JAN 2022 AT 9:11

आराम को वक्त बहुत है,
अभी तो शाम होना भी बाकी है।
ढलते सूरज से आश कहा
खुद को प्रकाश बनाना बाकी है।
टूटते हर उस होंसले में अब
खुद से ही जान फूंकना बाकी हैं।
मंजिल कि, भूख बहुत है,
बस यथार्थ प्रयास करना बाकी है।

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