Manish Chandra   (आतिश)
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Joined 4 April 2019


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26 MAR AT 10:32

रास्तों में अब कोई पत्थर नहीं मिलता,
काफ़िला कोई भी उसको नहीं मिलता.

है असर ऐसा हुआ घर जलने का उसपर,
वो अब किसी को भी घर पर नहीं मिलता.

हौसले के सामने आज है दरिया खड़ा,
है वो तलाश में उसे तिनका नहीं मिलता.

किस रास्ते से लौट कर आया वो गाँव में,
वो कहाँ रहता है किसी को नहीं मिलता.

तैराक हमने डूबते देखे हैं ‘आतिश’,
गर कोई किनारा उनको नहीं मिलता.

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10 MAR AT 7:20

हर दफ़ा मेरा ये घर मेरा पता नहीं होता,
हर दफ़ा मुझे मेरे ख़ुद का पता नहीं होता.

चिट्ठियाँ तो आती हैं जाने कहाँ से ढूँढतीं,
डाकख़ाने में कोई मेरा पता नहीं होता.

क़ैदख़ाना कौन सा, है सज़ा कितनी बची,
क़ैदी को आजकल इसका पता नहीं होता.

रास्तों से कारवाँ को है मिला कोई पता,
रास्ते को कारवाँ लेकिन पता नहीं होता.

है शोर कैसा बह रहा वीरानों में आजकल,
वीराने को आजकल इसका पता नहीं होता.

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8 FEB AT 8:11

हमको आस पास एक अजाब चाहिए,
हमको आज थोड़ी सी शराब चाहिए.

कल हमारे कान में क़ासिद ने ये कहा,
उनको हमारी नीयत ख़राब चाहिए.

नींद के शौक़ीन हम ज़्यादा नहीं लेकिन,
जीने के लिए हमको एक ख़्वाब चाहिए.

मेरी अधूरी नींद उसने देख कर कहा,
उसको मेरे दिन का भी हिसाब चाहिए.

ज़िद पे आज बैठा कैसे है आतिश,
जाने किस पैग़ाम का जवाब चाहिए.

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26 DEC 2024 AT 8:00

वो दरिया में अब तो बहेगा नहीं,
पैरहन का दाग़ भी धुलेगा नहीं.

तजुर्बा तो सब यहाँ सुनेंगे लेकिन,
तजुर्बा है कोई मेरी सुनेगा नहीं.

दाम देखे नींद के तो इल्म ये हुआ,
ख़्वाब कोई अब यहाँ बुनेगा नहीं.

मेरे दाम गिर गए बाज़ार में ज़्यादा,
मुश्किलों में अब कोई चुनेगा नहीं.

है मुझे फ़ायदा वहशत का बड़ा,
अब मुझे कोई कुछ कहेगा नहीं.

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20 DEC 2024 AT 5:01

हमको हमारे काम की फ़िकर नहीं रही,
हमको हमारे नाम की फ़िकर नहीं रही.

ख़्वाब आने जब लगे अमीरों के उन्हें,
हमको भी आराम की फ़िकर नहीं रही.

मुफलिसी की एक लत कैसे लगी हमें,
हमको हमारे दाम की फ़िकर नहीं रही.

उम्र का नशा भी कैसा नशा है ये,
हमको किसी जाम की फ़िकर नहीं रही.

आ रहा था खंजर एक गले के आस पास,
हमको क़त्ल ए आम की फ़िकर नहीं रही.

है देखा हमने रास्ता उस क़ब्रगाह का,
हमको आसमान की फ़िकर नहीं रही.

हमको बुलाया चांद ने है मिलने के लिए,
हमको तभी से शाम की फ़िकर नहीं रही.

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9 DEC 2024 AT 7:22

हमसे हमारा अक्स सताया नहीं गया,
पर आईना कमरे से हटाया नहीं गया.

चाँद कल सुना गया क़िस्सा चकोर का,
और पेड़ अमरबेल से दिखाया नहीं गया.

बत्तियाँ जला कर ख़ुश हो गया शहर,
सूरज को डूबने से बचाया नहीं गया.

कारवाँ तो चल रहा था कोई आस पास,
हमको वहाँ का रास्ता बताया नहीं गया.

लेकर हमारा नाम करे सर कोई ऊँचा,
हमसे तो ऐसा नाम कमाया नहीं गया.

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4 DEC 2024 AT 10:17

जगमगाने का हुनर तो ठीक है मगर,
पूछो चिराग से कि उसके पाँव कैसे हैं.

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2 DEC 2024 AT 6:31

चला गया है कारवाँ अब रोशनी कमी पे है,
लकीर एक हाथ की आज भी ज़बीं पे है.

राह से न पूछिए है कितना उसको मलाल,
चला था बड़े जोश में और आज भी वहीं पे है.

ख़ूब चमकने का जिगर चांद में होगा मगर,
उसको देखने का हुनर आज भी ज़मीं पे है.

लोग समझाते रहे निकल चुका है हाथ से,
और कोई कहता ये रहा ख़्वाब तो कहीं पे है.

भीड़ है ‘आतिश’ बहुत दम घोंटने के वास्ते,
साँस लेने का मज़ा तो आज भी यहीं पे है.

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20 OCT 2024 AT 11:22

हमने किताब लिखी है,
कोई जाओ सब से कहो,
हाशिए में जो नाम हैं,
वो किताब का हिस्सा नहीं.

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20 OCT 2024 AT 11:11

मैंने ख़ुद को भी कभी जीने नहीं दिया,
ज़हर ख़ुद को भी कभी पीने नहीं दिया.

इरादा सुई का तो हमेशा नेक था,
किसी ने उसे ज़ख़्म को सीने नहीं दिया.

मिल रहे थे दाम वहाँ मुँहमाँगे मगर,
मैंने मेरे ख़्वाब को बिकने नहीं दिया.

था सूराख अरसे से एक मेरी जेब में,
पर कभी घर का पता गिरने नहीं दिया.

क़तबे से पता न चले मेरा रास्ता,
नाम मेरा मैंने वहाँ लिखने नहीं दिया.

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