Mamtansh Ajit   (ममतांश अजीत)
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थोड़ा सा कुछ टूटा फूटा कच्चा पक्का सा लिख लेता हूँ ।
Insta- mamtansh_ajit
Fb-Mamtansh Ajit
Joined 22 October 2017


थोड़ा सा कुछ टूटा फूटा कच्चा पक्का सा लिख लेता हूँ ।
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23 HOURS AGO

*आसुत जल*

दिक़्क़त ये नहीं है कि,
मैं अंतिम बार कब हँसा था,
ये याद नहीं है।

दिक्कत ये भी नहीं है कि,
मैं अंतिम बार कब रोया था,
मुझे ये याद है,
आज ही।

दुनिया में सबसे स्वच्छ और आसुत जल है,
आँखों का पानी,
जब इसका बहाव सही दिशा में हों,
भावों के साथ इसका आना हों,
किसी भी भाव में दूसरे भाव का मिश्रण न हो।

दिक़्क़त ये है कि,
अब ये आसुत जल प्रदूषित हो चुका है,
मिलावट का पैमाना हौले हौले ऊपर ही चढ़ रहा है,
ये स्वच्छ जल पूर्णतया दूषित हो जाएगा,
एक दिन,
और मैं कुछ नहीं कर पाऊँगा।

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10 MAY AT 17:21

*टुकड़ा भर कविता*

बालकनी में खड़ा होकर नहीं देखता मैं कोई दृश्य,
मैं अपने विचारों को गूँथकर बनाता हूँ कोई कविता,
मेरी कविता में कुछ भी भौतिक नहीं है और न ही कोई शारीरिक आकृति का अंश।

कविता का प्रथम और अंतिम शब्द मुझमें,मुझसें,
मुझतक ही है,
इस छोटी सी काव्य दुनिया में मैंने किसी को भी जगह नहीं दी हैं।

बालकनी से अंदर आते वक्त मैं इस छोटी सी दुनिया वहीं छोड़ देता हूँ,
मेरी कविता वहीं ख़त्म हो जाती हैं,
मेरी दुनिया भी वहीं समाप्त हो जाती हैं।

मैं फ़िर बनाता हूँ एक नई दुनिया उसी जगह,
फ़िर वही छोड़ आता हूँ,
किसी क्षण मैं इस बनती बिखरतीं दुनिया को समेटूँगा,
एक किताब में,
कितनी मोटी और बड़ी होगीं न मेरी कविता और मेरी दुनिया,
लेकिन टुकड़ा टुकड़ा और अंश अंश।

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1 MAY AT 15:46

मारते थे हम भी छलाँगे,
और देते थे हम भी कभी किलकारियाँ,
ज़िम्मेदारियों ने हमारी टाँगें और जीभ बाँध दी हैं।

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27 APR AT 16:58

अब न उतरेगी उमर पर,
संजीदगी की ज़िल्द जों मैंने चढ़ा ली है,
अब न निकलेंगे मासूमियत के पन्नें इसमें से,
इधर उधर बिखरें हुए ।

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16 APR AT 14:01

*शून्य जलधि*

दृग से झरते अश्रुओं से सौंप दिया उसने अपना अंशुक मेरे काँपते करों में,
वो प्रसून सम नैन बहते हुए निकल गए मेरे चक्षुओं के सामनें से,
उस दुप्पटें में जल का कतरा नहीं,
अपितु कराल वेदना का अथाह समंदर था।

मैं रह गया था फ़िर भी पिपासु,
उससे दोबारा मिलनें के लिए,
उसें सरिता बनना पड़ेगा,
लेकिन संभव नहीं है।

समंदर पूरा होकर भी पूरा नहीं होता,
कितनी ही पीड़ाएँ उसके मन में व्यवस्थित होती हैं,
नदियाँ उसमे आकर मिलती हैं,
वो उनकी वेदनाएँ अपने अंदर समेट लेता हैं,
दु:ख ये है कि वो सबकी यातनाएँ ग्रहण कर लेता हैं,
और ख़ुद कितना भर जाता हैं।

आह! कितना कष्ट है न!
स्वयं को भर लेना दर्द में,
और ख़ाली न कर पाना ख़ुद की अभिलाषाओं को।
संपूर्ण होना कितना वेदनामयी है,
भरा होना बहुत क्रूर जान पड़ता हैं,
कभी कभी,
रो देना लेकिन रिक्त न होना,
विरहणीय है!
असहनीय है!
अकथनीय है!

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12 APR AT 20:21

मैं जाया हो गया हूँ तैतीस में ही,
देखों! मैंने सारे जज़्बात कितनी जल्दी बेच दिए।

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5 APR AT 11:49

*कपूर की गोलियाँ*

एक तह में करीने से सजाया गया मैं,
जब भी कोई खोलता हैं,
मैं उल्टा पुल्टा हो जाता हूँ,
नया नहीं होता पर इतने दिनों से नयेपन का आभास हो जाता है,
मुझे क्यों खोला गया?
ये पूछता हूँ ख़ुद से।

मुझे रहने दो न!
संदूक में ही तह करके दोबारा से,
डाल दो इसमें कपूर की गोलियाँ,
मैं नहीं आना चाहता सबके सामनें,
मैं ख़ुशबू लिए ही उस आवरित सरंचना में ही ठीक हूँ।

मुझे नहीं पसंद दिखावा बार बार का,
मैं बंद और छुपा रहकर ही अपना काम करना चाहता हूँ,
मैं कपड़ा नहीं,
शरीर हूँ,
मुझे रहने दो ऐसे ही,
मेरी सुगंध ही पर्याप्त है,
ये मेरा स्वभाव है।

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31 MAR AT 13:09

*राज़दार*

दिल की ज़मीन के जमींदार बने बैठे हो,
क़र्ज़ा भी नहीं चुकाते क़र्ज़दार बने बैठे हो।

करवटों में गुज़र गई सारी रात,
हमारी रातों के राज़दार बने बैठे हो।

भाता ही नहीं कोई अब आस पास,
दिल ओ जान के हक़दार बने बैठे हो।

छुआ जब से तुमने ख़ुशबू नहीं गई,
तुम फूलों जैसा हथियार बने बैठे हो।

अब लगता है नहीं कटेगा जीवन समर तुम्हारे बिन,
तुम मेरी ज़िंदगी के साझेदार बने बैठे हो।

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25 MAR AT 17:31

*बोझिल सीना*

कुछ दिन उदासी चेहरे पर न दिखें तो चेहरा बुरा मान जाता है,
अब इसकी आदत सी लग चुकी है,
मैंने महसूस किया है कि,
सीना भारी न हो तो,
आस पास कुछ भी अच्छा नही लगता।
लिखनें के लिए भावपूर्ण होना आवश्यक है,
मैं ये मानता भी हूँ,
लेकिन भारी सीना और उदास आँखें,
ये समझानें के लिए भी होती है कि,
आदमी चाहता है बोलने से पहले कोई उसके अल्फ़ाज़ समझ लें,
ताकि उदासी आने में समय थोड़ा और लगे,
लेकिन मैं ये नहीं चाहता।
मेरे चेहरे पर उदासी फबती है,
सीना बोझिल रहें तो,
एक आध पंक्ति अच्छी लिख पाऊँ।

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19 MAR AT 9:25

एक बार बस ठान लीजिए,
कुछ भी मुश्किल नहीं है,
ये जान लीजिए।
हौंसलों को पगों में बाँधकर,
फ़िर सपनों को अपने उड़ान दीजिए।।

एक बार गिरने पर उठना सीखिए,
बार बार गिर रहे हो तो अपनी ग़लतियों पर ध्यान दीजिए,
आपमें सबकुछ हासिल करने की क्षमता है,
बस मेहनत का दामन थाम लीजिए।
हौंसलों को पगों में बाँधकर,
फ़िर सपनों को अपने उड़ान दीजिए।।

निरंतर प्रयास सफलता को और नज़दीक लेकर आएगा,
आज अगर ग़म की शाम है तो उत्सव का जीवन भी आएगा,
दुनिया उसी के सामने सिर झुकाती है,
जो लगातार लक्ष्य की तरफ़ बढ़ता है,
इसलिए नाकामयाबी मिले तो भी उम्मीदों को उफ़ान दीजिए।
हौंसलों को पगों में बाँधकर,
फ़िर सपनों को अपने उड़ान दीजिए।।

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