*खंडहर मन*
बारिशों की इस ऋतु में,
भींग जाता है मन,
और मन की दीवारों पर आ जाती हैं सीलन,
हो जाता हैं आस पास का वातावरण भी मनमोहक,
पर सीलन से मन की दीवारें,
पहले से ज़्यादा जगह घेर लेती है।
और इस वजह से मुझे बारिशें नहीं भाती,
घर की दीवारें और छत टपकती है,
आदमी की मन रिसता रहता है,
फ़िर एक स्थान पर ये पानी एकत्रित हो जाता है,
जमा हुआ पानी दुर्गंध देता है,
पुरानी यादों की,
घर की आठ नौ महीने की सारी व्यवस्था बिगाड़ देता है।
लोग बाहर की हरी भरी घटा देखकर,
बेवज़ह ही उत्सव मनाते हैं,
उन्हें अपने हिस्से का देखना चाहिए,
ज़्यादा दिन की बारिश से,
घर ढह जाएगा,
मन ढह जाएगा।
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मुझें संभाल कर रख लेना दिल की दुछत्ती में कहीं,
‘ख़ाली वक़्त हूँ’,कभीं न कभीं बहुत काम आऊँगा।
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*बुरी कविता*
न दर्द ,
न आँसू,
न ख़ुशी,
न शोक,
न हँसी,
न उदासी,
न बेबसी लिखी,
मैंने बस ‘कविताएँ’ लिखी।
न बोला गया,
न मूक रहा गया,
न समझा सका,
न ख़ुद समझ सका,
जब अंतर्मन चीख उठा,
काँपते हाथों से,
करके स्वयं को बुरा घोषित,
मैंने बस ‘कविताएँ’ लिखीं।
सिसकियों की नम भूमि पर,
ग़ुस्से की तपती धरा पर,
कभी कभी असहाय होकर,
कभी अकेलेपन में,
कभी एकान्त में,
कभी भीड़ में भी अपने आप को ‘एक’ मानकर,
मैंने बस ‘कविताएँ’ लिखीं।
कोरा होकर भी,
भरा होकर भी,
अनिच्छा होते हुए भी,
मैंने बस ‘कविताएँ’ लिखीं।
जब कुछ नहीं होगा मेरे पास,
ये कविताएँ भी नहीं,
तब भी मैं ‘कविताएँ’ ही लिखूँगा।
और लोगों से बस उम्मीद रखूँगा कि,
वो इसे कविता और शब्द ही समझें।
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*गिरगिट*
दस से बीस -
नारंगी और पीला।
बीस से तीस-
नीला और आसमानी।
तीस से चौतीस-
सफेद और स्लेटी।
मैंने पसंदीदा रंग बदले हैं,
उमर के साथ,
या,
उमर बदली हैं रंग के साथ।
संक्षेप में-
मिज़ाज बदला है,
कैसे?
ऐसे-
चमकीला और चमकीला।
विस्तृत और खुला हुआ।
सरंक्षित और मिला हुआ,
ज़्यादा ग़लत और थोड़ा सही,
कभी सबसे अलग,
कभी ख़ुद में ही सिमटा हुआ।
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किताबें पढ़ते लोग,
अच्छे लगते हैं,
चुपचाप और शांत लोग।
एक कोने में अलग थलग,
अच्छे लगते हैं,
ख़ुद में खोए ज़हीन लोग।
पन्नों में सर झुकाएँ लोग,
अच्छे लगते हैं,
किताबों से इश्क़ लगाएँ हुए लोग।
सीनें पर किताबें बिछाएँ लोग,
अच्छे लगते हैं,
शब्दों में ख़ुद को लुटाएँ हुए लोग।-
*आसुत जल*
दिक़्क़त ये नहीं है कि,
मैं अंतिम बार कब हँसा था,
ये याद नहीं है।
दिक्कत ये भी नहीं है कि,
मैं अंतिम बार कब रोया था,
मुझे ये याद है,
आज ही।
दुनिया में सबसे स्वच्छ और आसुत जल है,
आँखों का पानी,
जब इसका बहाव सही दिशा में हों,
भावों के साथ इसका आना हों,
किसी भी भाव में दूसरे भाव का मिश्रण न हो।
दिक़्क़त ये है कि,
अब ये आसुत जल प्रदूषित हो चुका है,
मिलावट का पैमाना हौले हौले ऊपर ही चढ़ रहा है,
ये स्वच्छ जल पूर्णतया दूषित हो जाएगा,
एक दिन,
और मैं कुछ नहीं कर पाऊँगा।
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*टुकड़ा भर कविता*
बालकनी में खड़ा होकर नहीं देखता मैं कोई दृश्य,
मैं अपने विचारों को गूँथकर बनाता हूँ कोई कविता,
मेरी कविता में कुछ भी भौतिक नहीं है और न ही कोई शारीरिक आकृति का अंश।
कविता का प्रथम और अंतिम शब्द मुझमें,मुझसें,
मुझतक ही है,
इस छोटी सी काव्य दुनिया में मैंने किसी को भी जगह नहीं दी हैं।
बालकनी से अंदर आते वक्त मैं इस छोटी सी दुनिया वहीं छोड़ देता हूँ,
मेरी कविता वहीं ख़त्म हो जाती हैं,
मेरी दुनिया भी वहीं समाप्त हो जाती हैं।
मैं फ़िर बनाता हूँ एक नई दुनिया उसी जगह,
फ़िर वही छोड़ आता हूँ,
किसी क्षण मैं इस बनती बिखरतीं दुनिया को समेटूँगा,
एक किताब में,
कितनी मोटी और बड़ी होगीं न मेरी कविता और मेरी दुनिया,
लेकिन टुकड़ा टुकड़ा और अंश अंश।
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मारते थे हम भी छलाँगे,
और देते थे हम भी कभी किलकारियाँ,
ज़िम्मेदारियों ने हमारी टाँगें और जीभ बाँध दी हैं।
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अब न उतरेगी उमर पर,
संजीदगी की ज़िल्द जों मैंने चढ़ा ली है,
अब न निकलेंगे मासूमियत के पन्नें इसमें से,
इधर उधर बिखरें हुए ।
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*शून्य जलधि*
दृग से झरते अश्रुओं से सौंप दिया उसने अपना अंशुक मेरे काँपते करों में,
वो प्रसून सम नैन बहते हुए निकल गए मेरे चक्षुओं के सामनें से,
उस दुप्पटें में जल का कतरा नहीं,
अपितु कराल वेदना का अथाह समंदर था।
मैं रह गया था फ़िर भी पिपासु,
उससे दोबारा मिलनें के लिए,
उसें सरिता बनना पड़ेगा,
लेकिन संभव नहीं है।
समंदर पूरा होकर भी पूरा नहीं होता,
कितनी ही पीड़ाएँ उसके मन में व्यवस्थित होती हैं,
नदियाँ उसमे आकर मिलती हैं,
वो उनकी वेदनाएँ अपने अंदर समेट लेता हैं,
दु:ख ये है कि वो सबकी यातनाएँ ग्रहण कर लेता हैं,
और ख़ुद कितना भर जाता हैं।
आह! कितना कष्ट है न!
स्वयं को भर लेना दर्द में,
और ख़ाली न कर पाना ख़ुद की अभिलाषाओं को।
संपूर्ण होना कितना वेदनामयी है,
भरा होना बहुत क्रूर जान पड़ता हैं,
कभी कभी,
रो देना लेकिन रिक्त न होना,
विरहणीय है!
असहनीय है!
अकथनीय है!
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