अंत पर्यावाची है आरंभ का ,
नए राह का नये सवेरे का ।
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बस थोडा सा सकून के लिए मैं अपने ज़ज़्बात डायरी को सुनाती ... read more
मेरी प्रेम लिखी सारी कविताएं व्यर्थ सी लग रही है ,
मेरा तुम्हारे लिए प्रेम ना जाने क्यों दयरों में बंध गया है
"जबकि हमारे ये प्रेम स्वतंत्र रहने के लिए बाध्य था"-
भूल कर सारे वादे नए वादों में अटक गया है मुसाफिर ,
नए मोड़ की तलाश में कुछ यूं भटक गया है मुसाफिर ,
जो जुस्तजू थी मंजिल के लिए वो अब दरकिनार है ,
टूट कर बिखरी है मंजिल यूं लगता है बरसो से वीरान है ,
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मेरा जानकर टेढ़ी बिंदी लगाना ,जो जरा सी अखरती है तुम्हें ,
वो अक्सर तुम्हारे सही किये जाने पर ही निखरती है मुझपर ।-
उम्मीद की किरण बिखर सी रही है ,
मानो मेरे लेखन पर बेड़ियां लगी हो ।-
इक दफा फिर चोटिल हो गया वो शख्स ,
जो अपनो के दिये जख्मों से उभरा था अभी ।-
मन के अंधेरों में उम्मीदों के दियों से उजियारा कर ,
तोड़ के जंजीरों को नए ज़िंदगी से रूबरू कर ,
खिलते हैं कमल खिचड़ो में तू उन में मोती बन ,
छीन ले खुशियां अपनी तू अपनी मोहब्बत बन ,
अपने ज़ज़्बातों को सूरज की तपिश बनाकर ,
तू दहक अमावस्या को जुगनुओं सा जल कर ,
मन के अंधेरों में उम्मीदों के दियों से उजियारा कर ,
तोड़ के जंजीरों को नए ज़िंदगी से रूबरू कर ,
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साज सज्जा में बिंदी अखरने जब लगे ,
सुर्ख होंठों की तरफ दिल जब बढ़ने लगे ,
तब तुम रूहानी इश्क़ से मुख मोड़ लेना ,
जला के प्रेम खत तुम गुलाबों से दोस्ती करना ।
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