परछाइयां अंधेरी हर पल है मुस्कुराती
डर से सिमटी हूं मैं जब वें करीब आती
जलते हुए दियों से मेरी भी यारियां थी
सीने लगा कर उसको जब तक नहीं जले थे
सीखे कई बहाने कुछ नए कुछ पुराने
खुद में तलाश ती हूं खुद के ही मैं ठिकाने
ख्वाबों में था भरोसा दुनिया पर भी यकीन था
जब तक किसी मेले में खुद को नहीं खोये थे
बस फर्क था कि तब हम तन्हा नहीं हुए थे-
पहले भी देखे हमने तन्हाइयों के मंजर
बस फर्क था कि तब हम तन्हा नहीं हुए थे
मंजिल की चाह में थी दौड़ती यह दुनिया
हम पा गए है उसको यही सोच कर रुके थे
बरसो बरस था हमने सावन बसंत देखा
हाथों में थी हमारे उम्मीदों वाली रेखा
कोमलता की परिभाषा हम नित बनाते रहते
जब तक गुलाब तेरे कांटे नहीं छुए थे-
तुझे भूलने की कोशिश मे, तुझे याद कर रहे हैं
कुछ इस तरह यह जिंदगी बर्बाद कर रहे हैं...-
कुछ और भी हैं मेरी चाहत में गुमशुदा
बस फर्क है कि कुछ-कुछ अब हम भी खो रहे हैं-
वह रूठा तो भी मैं रूठी वह हंस दे तो भी रुठी मैं
मोहब्बत मानी ना जाए ना मानू तो भी झूठी मैं
बड़ी नाराजगी से उसका मैं दीदार करती हूं
वह फिर भी जान जाता है कि मैं बस प्यार करती हूं
न जाने मुझ सी बंजर रेत में दिल बो रहा है क्यों?
धुआं ठंडे पड़े अंगारों में फिर हो रहा है क्यों?-
भुलाये ही नहीं भूली नशीली आंखों की चितवन
कभी तन में उठे हलचल कभी बेचैन होता मन
ना चाहूं याद में करना फिर भी मुझ को याद आता है
मैं करती हूं शिकायत और वह बैठा मुस्कुराता है
लड़ाई से शुरू होती लड़ाई पर खत्म होती
मगर उन बेतुकी बातों को यह दिल रो रहा है क्यों
धुआं ठंडे पड़े अंगारों में फिर हो रहा है क्यों ?-
किसी की याद में यह दिल हमारा खो रहा है क्यों?
धुआं ठंडे पड़े अंगारों में फिर हो रहा है क्यों?
हवाएं आती हैं आंगन में क्यों अब आंधियाँ बनकर?
मेरा ही अक्स दर्पण से निहारे क्यों मुझे तनकर?
जलाती है मेरे मन को चटक यह चांदनी रातें
मैं जागी रात भर कोई मजे से सो रहा है क्यों?
धुआं ठंडे पड़े अंगारों में फिर हो रहा है क्यों?-
कभी चंदा से तारों से कभी पतझड़ बहारों से
कभी नदियों से भी पूछा कभी पूछा किनारो से
अगर तू ख्वाब है मेरा मुकम्मल क्यों नहीं होता
घायल दिल के घावो पे क्यों बस खंजर चलाता है
कोई भूला हुआ सा अजनबी अब याद आता है-