जब दरवाज़ा नहीं खुलता,
और साँसें अटकी-सी लगती हैं,
तब खिड़की से रौशनी झाँकती है,
कहती है — अभी सब कुछ बाकी है।
जब चाभी भी काम न आए,
और दस्तकें थक जाएँ सारी,
तब भीतर की चुप्पी बोल उठे,
तू ही है अपनी खुद की सवारी।
हर बंद दरवाज़ा कहता है,
रुक, सोच, और फिर चल पड़,
कभी-कभी रास्ता मोड़ता है राही को,
ताकि वो पाए कोई नया मुक़ाम अनजाना-सा।
तो जब दरवाज़ा नहीं खुलता,
घबराना नहीं, थमना नहीं,
कभी दीवारों में भी दरारें होती हैं —
बस भरोसे से देखना,
कहीं से रौशनी आती है।
हिम्मत से हल ढूँढ निकलता है,
हर ठोकर में रास्ता बनता है।
जब दरवाज़ा नहीं खुलता,
तब शायद खुद को खोलना पड़ता है।-
मुसाफ़िर हैं हम तुम,
रास्तों के कहानीकार,
हर मोड़ पे नया सफ़ा,
हर लम्हा एक नया इम्तिहान।
चलते हैं हम, बेख़बर सी राहों पर,
कभी धूप सी तपिश, कभी छाँव सा सुकून।
कंधों पे अपने वक़्त की गठरी,
आँखों में सपनों की धूप छाँव।
कभी हवाओं से बातें,
कभी तारों से मुलाक़ात,
कभी खो जाना ख़यालों में,
कभी ख़ुद से ही हो जाना मुलाक़ात।
मुसाफ़िर हैं हम तुम,
ना ठिकाना, ना मंज़िल का पता,
बस चलते जाना,
हर सफ़र में खुद को पाना।-
मन बड़ा जटिल है, उलझनों का जाल,
हर सोच में खोया, हर बात में सवाल।
इच्छाओं का समंदर, सपनों की झंकार,
कभी झूमता सावन, कभी रेगिस्तान।
चाहे तो कर दे पर्वत को धूल,
न चाहे तो बह जाए सुलगती धूप।
उलझा रहे बिन वजह के खेल,
कभी तोड़ दे हर बंधन का बेल।
मन बड़ा जटिल है, राहें अनजान,
कभी ठहरा सागर, कभी बहता तूफान।
कभी मौन का संगीत, कभी शब्दों का शोर,
कभी खुद से दूरी, कभी खुद का ही जोर।
मन बड़ा जटिल है, खुद से ही लड़ाई,
कभी हार को अपनाए, कभी जीत की गवाही।
मन बड़ा जटिल है, इसको समझ पाना कठिन,
बस हर रोज़ इसकी बातों में जीना है जरूरी।-
काँच की दीवारों में कैद,
सपनों का करता व्यापार हूँ।
सूट-बूट में दिखता भले,
भीतर से एक मज़दूर ही यार हूँ।
न घंटी बजती, न सायरन,
पर समय का गुलाम बना बैठा।
मीटिंगों की ज़ंजीरों में जकड़ा,
हर शाम को थका-हारा लौटता।
कॉफी के कप में छलकता है दर्द,
स्लाइड्स में छुपी है पीड़ा मेरी।
टार्गेटों की चाबुक सहता,
पर मुस्कान बनाये रखता चेहरा तेरी।
बोनस की उम्मीद में जीता,
पर वक़्त गिरवी रख आया हूँ।
कॉरपोरेट की इस दौड़ में अब,
अपने आप को ही भुलाया हूँ।
कभी-कभी सोचता हूँ चुपचाप,
कब मिलेगा अपना असली वक़्त।
या यूँ ही बजता रहेगा ये कीबोर्ड,
जैसे हथौड़ा किसी लोहार के वक्त।
— एक कॉरपोरेट मज़दूर (महesh)-
कौन यहां समझाए किसको, सब अपनी धुन में हैं,
हर शख़्स यहां बस अपने ही ग़म में हैं।
सच की भी आवाज़ अब तो खो सी गई है,
हर कोई दर्पण से लड़ता भ्रम में है।
-
चल पड़ा हूँ मैं, हवाओं के संग,
न मंज़िल की फिक्र, न राहों का ढंग।
हर मोड़ पर नई कहानी मिले,
हर पत्थर पे अपनी निशानी मिले।
ज़िंदगी है इक अनजाना कारवां,
कभी धूप, कभी छाँव का तराना।
कभी हँसी में भीगे सपनों का जाल,
कभी खामोशी में बुनते सवाल।
मैं मुसाफ़िर, बेफिक्र, बेसबब,
ना रुकने की जल्दी, ना थकने का डर।
जो भी आए, उसे अपना बना लूँ,
जो भी खो जाए, उसे हवा में उड़ा दूँ।
कहीं मुरझाए फूलों की महक,
कहीं झिलमिलाते तारों का दर्पण।
कभी आँधी से उलझती साँसें,
कभी बारिश में भीगती आसें।
हर मोड़ पे सीखता हूँ कुछ नया,
हर पतझड़ में ढूँढता हूँ नया पत्ता।
न हार से डर, न जीत का गुमान,
बस चलते रहना मेरा है ईमान।
ज़िंदगी — तू चलती रहे इसी तरह,
मैं भी चलता रहूँ — बेफिक्र, बेख़बर।-
इन आँखों ने देखा सहरा भी,
और प्यार की नमी देखी है।
टूटते रिश्तों की हलचल भी,
बनती हुई खुशी देखी है।
हर ख्वाब यहाँ बिखरते देखा,
हर जख़्म यहाँ हँसते देखा,
सन्नाटों की चुभती चुप्पी में,
धीमी कोई सदी देखी है।
बरसों के दर्द का दरिया भी,
पलकों पे ठहरा पाया है,
और एक पल में सारा ग़म,
आँसू बनकर ढलती देखी है।
ये आँखें आईना बन जाती हैं,
छुपे हुए जज़्बात दिखाती हैं,
जो दिल ने कभी कहा भी नहीं,
उन ख़ामोशियों को पढ़ती हैं।
हाँ, इन आँखों ने बहुत कुछ सहा है,
टूटे हुए सपनों को गढ़ा है,
जिन रास्तों पर साया भी न था,
उन राहों में रौशनी देखी है।-
पहलगाम की वादियों में फिर मातम बसा हुआ है,
हर फूल, हर पत्थर जैसे सवाल सा बना हुआ है।
बेख़ता ख़ून बहा है वहाँ, मज़हब के नाम पर,
मगर क़ातिल भूल गया — मज़हब तो है अमन का सफ़र।
न वो हिंदू था, न मुसलमान, जो झूठी जंग में मारा गया,
वो एक इंसान था, जो नफ़रत के हाथों हारा गया।
क़ुरान हो या गीता, कहीं ये हुक्म नहीं मिलता,
कि मासूमों को मार दो, जन्नत का सौदा कर लो।
ये दहशतगर्दी — ना अल्लाह की है, ना राम की,
ये बस सियासत की आग है, इंसान के अंजाम की।
तू बंदूक लिए फिरता है, खुदा के नाम की आड़ में,
पर याद रख —
इंसानियत के आँसू लगते हैं सबसे भारी फ़रियाद में।-