Madhvender Singh Chauhan  
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Joined 13 January 2020


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Joined 13 January 2020
13 OCT AT 13:11

कभी तेरी आँखों में मेरा जहाँ आबाद था,
कभी तेरे होंठों पर मेरे नाम का ही संवाद था।

अब तेरी हँसी में मिलता मुझे वो सुकून नहीं,
अब तेरे साये में दिखता मुझे वो जुनून नहीं।

माना देख तुझे फिर से, खो जाता यादों में हूँ कहीं,
पर अफ़सोस—जो तू थी, अब तू भी, ‘वो’ तू नहीं।

तेरी साँसों में अब है नहीं मेरा कोई मकाम,
तो रुक कर तेरी ज़िंदगी में, करूँ मैं क्या काम।

सोचा था रहूँगा तुझ संग तेरी यादों में, उम्रभर आबाद,
पर देख तेरे तौर बदले, बदला बदला है अब हर संवाद।
तो तोड़ भ्रम, छोड़ यादें, कर एक तरफ़्फ़ा मोहब्बत बर्बाद,
जा, …. कर दिया तुझे, अब अपने दिल से भी आज़ाद ।।

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11 OCT AT 12:18

एक दीदार को तरसती है मेरी नज़रे,
ख़ुश नसीब तो वो रक़ीब होगा,
जो उसे रोज़ अपने सामने देखता होगा;

एक लम्हा गले लगाने को तरसती है मेरी बाँहे,
ख़ुश नसीब तो वो रक़ीब होगा,
जो उसे रोज़ अपने सीने से लगाए सोता होगा;

मुक्कमल मोहब्बत से महरूम रही ये क़िस्मत मेरी
ख़ुश नसीब तो वो रक़ीब होगा,
जो आख़िरी इश्क़ से इज़हार-ए-मोहबत करता होगा !

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वो अद्वितीय चंचल चारू सा दुर्लभ एक दरिया
निर्जन धरा को प्रचुर करने का वो आख़िरी ज़रिया

नीरस जिसके अभाव से, दिल एक शुष्क सा सहरा
बरसती भला वो कैसे, जब रवि का हो प्रचंड पहरा

पर जब नसीब की बारिश किसी ओर छत बह गई
तब शस्य किस्मत की मृत्यु-शय्या पे ही रह गई

अब जटिल जीवन एक लंबा सोमवार सा मार हो गया
और शायद उसकी प्रयास की प्यास का नाश हो गया

की रण का था जो रणधीर कभी, अब बिखर अधीर सा हो गया
सुर्ख़ प्रेम की ज़मीं पे, वो पतझड़ सा, अब वीरगति का हो गया ।

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31 AUG AT 18:05

सिर्फ़ तुझको है ये हक़ ‘राधा’
तू अपना ये हक़ मुझपे जताया कर
यूँ ही हरदम तू मुझको सताया कर

“सुनो ‘माधव’…. पता है आज क्या हुआ”
बस ये कहकर मुझे सब कुछ बताया कर
तू तो मुझे रोज़ बस यूँ ही सताया कर !!

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24 AUG AT 19:10

मुझे अब तू नहीं,
पर तेरी बीती हुई परछाईं पसंद आज भी है।
मिलती हैं कई अप्सराएँ,
पर तेरी सादगी मन में मसंद आज भी है।

चश्मों के पीछे छिपी तेरी आँखों की गहराई में,
दबा यादों का वो बवंडर आज भी है।
शरीफ़ा-सा नर्म, मासूम दिल, फँसा है जिस महल,
मुझे पसंद वही उजड़ा खँडर आज भी है।

ज़ख़्म भर भी गए हैं अब,
पर तेरे नाम की खराश आज भी है।
कभी-कभी खिड़की से आती है वो पुरानी धूप,
जिस से तेरे होने की आस की तलाश आज भी है।

तेरी हँसी की वो धीमी गूंज,
साँस सी इन तस्वीरो में फँसी हुई आज भी है।
नई राहों में कदम बढ़ाए हैं बहुत,
पर उलझता जिसमे, ऐसा प्रश्न तू आज भी है।

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20 MAR AT 20:01

दर्द देती सर्द हवाये, फटते अधर, टूटती अधूरी साँसे,
ठिठुरती ठंड से ठहरा हुआ सा मन, बेरूह तापहीन बदन।
यूँ नील नभ सा गहरा नीलापन, जब गालों पर गहराया,
तब जीवन-मरन का अर्थ, सफेद चादर में लिपटके आया।

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18 MAR AT 18:50

अगर जनाज़े में लड़कियों को भी बुलाते,
तो तुमसे फिर मिलने को, हम मर भी जाते।
बिछड़ने ही सही, तुम आखरी विदायी पे जो आते,
देखकर तुम्हें, वो आखरी नींद, सुकूं से हम सो जाते।


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31 DEC 2024 AT 16:55

Dilemma : एक Pant, दो Kaaj !!

जब विकल्पों की विडंबना से विकृत हो वर्तमान,
जब अंतर्मन के द्वंद्व में फँसे तुम्हारी साँस और जान ;
तब दौराहो के इस जाल में, ना फँसने देना अपना आज,
सुन दिल की चल देना चाहे फिर कहे कुछ भी समाज ।

जो फँस गए तुम “एक पंत दो काज” के फेर में,
छूट जाएगा जीवन, अपने ही सपनों के ढेर में।
जो भा जाए तुम्हारे दिल को किसी विकल्प का अंदाज,
तुम उसी को बना के चल देना अपने मन की आवाज।

फिर चाहे तुम्हें पड़े अकेले चलना, चाहे ख़ुद को ही पड़े जलना,
तुम इरादो की आग से, इस रात को सूर्य सा बनकर निगलना,
अपनी इस लौ से, इस पथरीले पथ पे पिंघलाना पत्थर को भी,
अटूट अडिग अविचल अभिलाषा से, चमकाना अख़्तर को भी।

राह भले ही हो अंजानी, चाहे हो अनदेखा मंज़र भी,
दिल की डोर थामे डटना, चाहे बिखरे अंजर पंजर भी,
जो भी निरंतर रुक पाया अपनी चुनी राह पर इस दूबर घड़ी,
करेगी इंतज़ार नियति उसका ही, संघर्षों के उस पार खड़ी ।

यकीन रहे ... है संघर्षों की गहरायों में से छनी;
है सफलता उस पार खड़ी, है सफलता उस पार खड़ी !

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31 DEC 2024 AT 11:16

जब फिर मिलने की न हो कोई नई आस,
बाँधता भी ना हो कोई ये मिलन अकास,
और दिखता भी न हो ….
…. कोई करता आखिरी प्रयास … ;

तो साँसों की सरगम में…
….दर्द के सुर फूटने लगते हैं,
तब से ही धीरे-धीरे …
… कई अपने हमसे छूटने लगते हैं।

यदि रिश्तों का यह चाँद भी …
… बादलों-सा बिखर जाएगा,
तो तुम्हारे अंधेरों की गोद में …
… कौन दीप-सा साथ निभाएगा ?

छलते मृगतृष्णा-से अपनेपन का, …
… जो हुआ अगर उसे एहसास,
तो फिर भला कौन होगा …
… अंतिम साँसों के द्वार पर, तुम्हारे पास ?

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29 OCT 2024 AT 16:43

कैसी ये नियति की थी नयी कहानी
तेरी नियत ना जाने क्यों लगती थी जानी पहचानी
मेरी ‘ना’ ‘ना’ में भी, महसूस होती थी बेइमानी

पर परंतु किंतु तू बिन देखे “हम” में कोई लाभ हानी
करना चाहती थी तू सिर्फ़ अपनी ही “मैं” से मन-मानी
और यूँ चुनी तूने एक दूजे से दूर एक राह अनजानी

क्यों लिख दी है तूने क़िस्मत, तेरे ग़लत “हाँ” की ज़बानी
चलना अकेले तुझे, आगे ऐसी टूटे वादों की तेरी जवानी
जलना अकेले मुझे, आग जैसी वो यादों की तेरी निशानी

तेरे लिये ही मैं भी दबा गया था ये अपने सारे जसबात,
अफ़सोस है कि मान बैठा था मैं वो तेरी सारी हर बात
और फिर चल बैठा था छोड़ तेरा हाथ, तोड़ अपना साथ !

कहाँ लिखना चाहते थे एक नया गीत, पर लिख बैठे वहीं रीत
नियति की भी वही नियत, दोहराती फिर वहीं कुटिल कहानी
फिर वही टूटी जवानी, फिर आँखों से बहता मातम का पानी
… और फिर….
यूं तेरी ये रवानी, बन गई मेरी, पुरानी मौत की नयी निशानी !!!

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