दर्द देती सर्द हवाये, फटते अधर, टूटती अधूरी साँसे,
ठिठुरती ठंड से ठहरा हुआ सा मन, बेरूह तापहीन बदन।
यूँ नील नभ सा गहरा नीलापन, जब गालों पर गहराया,
तब जीवन-मरन का अर्थ, सफेद चादर में लिपटके आया।-
Lawyer by qualification
Actor by passion
Soldier by profession
&
A Poet by ... read more
अगर जनाज़े में लड़कियों को भी बुलाते, तो तुमसे फिर मिलने को, हम मर भी जाते। बिछड़ने ही सही, तुम आखरी विदायी पे जो आते, देखकर तुम्हें, वो आखरी नींद, सुकूं से हम सो जाते।
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Dilemma : एक Pant, दो Kaaj !!
जब विकल्पों की विडंबना से विकृत हो वर्तमान,
जब अंतर्मन के द्वंद्व में फँसे तुम्हारी साँस और जान ;
तब दौराहो के इस जाल में, ना फँसने देना अपना आज,
सुन दिल की चल देना चाहे फिर कहे कुछ भी समाज ।
जो फँस गए तुम “एक पंत दो काज” के फेर में,
छूट जाएगा जीवन, अपने ही सपनों के ढेर में।
जो भा जाए तुम्हारे दिल को किसी विकल्प का अंदाज,
तुम उसी को बना के चल देना अपने मन की आवाज।
फिर चाहे तुम्हें पड़े अकेले चलना, चाहे ख़ुद को ही पड़े जलना,
तुम इरादो की आग से, इस रात को सूर्य सा बनकर निगलना,
अपनी इस लौ से, इस पथरीले पथ पे पिंघलाना पत्थर को भी,
अटूट अडिग अविचल अभिलाषा से, चमकाना अख़्तर को भी।
राह भले ही हो अंजानी, चाहे हो अनदेखा मंज़र भी,
दिल की डोर थामे डटना, चाहे बिखरे अंजर पंजर भी,
जो भी निरंतर रुक पाया अपनी चुनी राह पर इस दूबर घड़ी,
करेगी इंतज़ार नियति उसका ही, संघर्षों के उस पार खड़ी ।
यकीन रहे ... है संघर्षों की गहरायों में से छनी;
है सफलता उस पार खड़ी, है सफलता उस पार खड़ी !-
जब फिर मिलने की न हो कोई नई आस,
बाँधता भी ना हो कोई ये मिलन अकास,
और दिखता भी न हो ….
…. कोई करता आखिरी प्रयास … ;
तो साँसों की सरगम में…
….दर्द के सुर फूटने लगते हैं,
तब से ही धीरे-धीरे …
… कई अपने हमसे छूटने लगते हैं।
यदि रिश्तों का यह चाँद भी …
… बादलों-सा बिखर जाएगा,
तो तुम्हारे अंधेरों की गोद में …
… कौन दीप-सा साथ निभाएगा ?
छलते मृगतृष्णा-से अपनेपन का, …
… जो हुआ अगर उसे एहसास,
तो फिर भला कौन होगा …
… अंतिम साँसों के द्वार पर, तुम्हारे पास ?-
कैसी ये नियति की थी नयी कहानी
तेरी नियत ना जाने क्यों लगती थी जानी पहचानी
मेरी ‘ना’ ‘ना’ में भी, महसूस होती थी बेइमानी
पर परंतु किंतु तू बिन देखे “हम” में कोई लाभ हानी
करना चाहती थी तू सिर्फ़ अपनी ही “मैं” से मन-मानी
और यूँ चुनी तूने एक दूजे से दूर एक राह अनजानी
क्यों लिख दी है तूने क़िस्मत, तेरे ग़लत “हाँ” की ज़बानी
चलना अकेले तुझे, आगे ऐसी टूटे वादों की तेरी जवानी
जलना अकेले मुझे, आग जैसी वो यादों की तेरी निशानी
तेरे लिये ही मैं भी दबा गया था ये अपने सारे जसबात,
अफ़सोस है कि मान बैठा था मैं वो तेरी सारी हर बात
और फिर चल बैठा था छोड़ तेरा हाथ, तोड़ अपना साथ !
कहाँ लिखना चाहते थे एक नया गीत, पर लिख बैठे वहीं रीत
नियति की भी वही नियत, दोहराती फिर वहीं कुटिल कहानी
फिर वही टूटी जवानी, फिर आँखों से बहता मातम का पानी
… और फिर….
यूं तेरी ये रवानी, बन गई मेरी, पुरानी मौत की नयी निशानी !!!-
तोड़ वचन, कहाँ शान्तनु कोई सुख भोग पाया था,
पर ना तोड़कर, देवाव्रत भी तो सिर्फ़ पछताया था;
यों तो दिये तीन वचनों पर, दशरत भी तो पछताया था,
और कह “जो आज्ञा”, राम ने भी वन वास ही पाया था ।
इसलिए; या तो कहना मत्त, … पर ग़र कह दो तुम,
फिर बिन करे मुकम्मल उसे, चैन से मत रहना तुम ;
क्योंकि देख कँटीले पथ को, यदि जो हार मान गया,
तो समझ लेना उसके शब्दों का सब मान सम्मान गया !
आख़िर नियति के चरण भी, आचरण से बदलते है ,
अडिग जो रह जाये, उन इरादों से पौरूष निकलते है;
तभी तो ख्याति, देवाव्रत, अपनी भीष्म प्रतिज्ञा से पाया है !
और हार कर राज पाठ भी, राम ही पुरशोत्तम कहलाया है !!-
तुम झेलम की ठिठुरन, तो मैं गंगा की गर्मी
तुम प्रेम राग में लीन, तो मैं बैराग से विलीन
तुम झेलम की मस्त लहरों का, एक ख़ुशनुमा सा एहसास
मैं गंगा के उत्तेजित प्रवाह में डूबता, एक टूटता सा प्रयास
तुम झेलम की बर्फ से प्रज्वलित, एक उम्मीदों का प्रकाश
मैं गंगा तट के मरघट पर जलती, बस एक ज़िंदा लाश
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मन vs मस्तिष्क !
जब जब मैंने उसे, है अपने मन से उतारा
सोचा आखिरकार आज मन, मस्तिष्क से हारा
तब तब उसने भेजी, तस्वीर अपने चेहरे की
फिर से जीत मन, रंगत उड़ा बैठी मेरे चेहरे की
यही तो इन, मन और मस्तिष्क की विडंबना है
साथ है, फिर ना जाने क्यों करते स्वयं ये एक संघर्ष भी है
यूं तो मस्तिष्क ने भूलने पर किया कई बार विचार विमर्ष भी है
पर इस बार भी हरा कर उसे, ये मन मना रहा अब हर्ष भी है !!
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