"तज कर दृग जल मैं प्रस्तर सी,
बन शिलाखण्ड भू पर उतरी
शत-शत झंझावातों को सह ,
मैंने पीड़ा को पाला है
वेदना मेरी मधुशाला है.....
नव गान शिलीमुख के सुनकर
था मन निराश फिर भी हँसकर
पतझड़ जैसे सूनेपन को
मैंने वसन्त कर डाला है
वेदना मेरी मधुशाला है....
प्रज्ञा का बोझ बना विप्लव
था विकल हृदय सुन उर का रव
प्रश्नों के तीक्ष्ण सायकों ने
मुझको घायल कर डाला है
वेदना मेरी मधुशाला है....
नीलांचल की छाया गहरी
बन छाई है मुझपर प्रहरी
मैं पागल पथिक बनी फिरती
मन मधु पीकर मतवाला है
वेदना मेरी मधुशाला है....
बाडव-ज्वालायें रोती हैं
पहचान मनुज की खोती हैं
तृष्णा ने राख किया प्रतिक्षण
दुःख ने खंडहर कर डाला है
वेदना मेरी मधुशाला है..."
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