बीते कुछ दिनों से....
(अनुशीर्षक में पढ़ें)-
"चुप की बंदिश लगी है...क्या कीजे ।
बात कुछ अनकही है...क्या कीजे ।।
कौन कहता है...चोट वक़्ती है ,
दर्द ये हर घड़ी है... क्या कीजे ।
बात आती है जब...अना पे कभी ,
कौन कितना सही है...क्या कीजे।
काटिएगा वही जो ...बोया है ,
बात ये लाज़िमी है...क्या कीजै ।
कुछ सितम वक़्त के तो कुछ क़िस्मत,
दाँव चलती रही है...क्या कीजे ।
जिनके आंगन में चाँद है ग़म का ,
दर्द की चाँदनी है... क्या कीजे ।
इश्क़ की मात और शह क्या खूब ,
फिर 'मधु' हारती है...क्या कीजे ।"
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दुनिया की बेरुखी से घबराकर
किताबों में सहारा ढूँढा तो
किताबों के क़िरदार उभरे और
हाथ पकड़ कर ले गए
किताब के उस आख़िरी सफ़हे की
आखिरी लाइन पर...
जहाँ लेखक ने अपने हिसाब से
कहानी ख़त्म कर दी थी...
किरदार मुस्कराए और ले गए
आख़िरी लाइन के आगे की उस दुनिया में
जिसके आगे कभी किसी ने
सोचा भी नहीं कि...
कहानी ख़त्म होने के बाद
क्या होता होगा उन क़िरदारों का..-
"ससुराल से लौटी कुछ बेटियां
जो नहीं चुनतीं रेल की पटरियां
या नदी की गहराई
वे गलती से चुन लेती हैं
जीवन जीने की उम्मीद
और समाज उनसे
उनके ग़लत चुनाव की कीमत
वसूलता रहता है उनकी
अंतिम सांस तक"
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"तुम माँ हो , मोह हो, ममता हो
जीवन की सुंदर समता हो
पथरीली राहें जीवन की
तुम कल-कल करती सरिता हो
तुम सुख का सुंदर आनन हो
तुम हरित प्रभा सा कानन हो
मरु भूमि छले जब तन-मन को
तुम रिमझिम करती सावन हो
है जन्मदिवस की मधु बेला
आया यह शुभदिन अलबेला
स्वीकार करो यह तुच्छ भेंट
शब्दों का प्रेममयी मेला"-
तू दूर बहुत है , पास नहीं ,
पर कैसे कह दूँ , खास नहीं।
ऐसा कोई पल न बीता ,
जिसमें तेरा एहसास नहीं।
(अनुशीर्षक में पढ़ें)-
"साहित्यिक कानन की शोभा,
बन विकसे फुलवारी सी ।
भावों की अभिव्यक्ति सजाए,
महके कुसुमित क्यारी सी ।
गर्व बनी हर भारतीय का,
जन-जन की अभिलाषा है ।
विश्व भाल पर प्रखर सूर्य सम,
शोभित हिंदी भाषा है ।।"-